जीवन की अठखेलियों के अक्स
सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह ‘आबशार’ जनाब डॉ. अजय त्रिपाठी ‘वाकिफ़’ की पहली किताब है, जिसमें पचहत्तर ग़ज़लियात की शुमारी है। कुछ ग़ज़लियात में निहां एहसासात की जुगलबन्दी प्यार, वफ़ा, जफ़ा की पेचीदगी के बट उधेड़ती हैं तो कुछेक फिरकापरस्ती पर तंज़ कसते हुए मिटती जा रही इंसानियत की बात करते हैं। कुछ अश्आर नफ़रत को नकारते हुए मुहब्बत, अम्नो-सूकूं तो अख़लाक़ की बात करते हैं। शे’र :- ‘आंखों में तो अक्स उतर आएगा इक दम/ दिल तक पर तुम को आने में वक्त लगेगा।’ चन्द अश्आर और मुलाहिज़ा कीजिए : ‘जीत किसके हाथ लगी है/ बस्ती बस्ती आग लगी है।’ ‘प्यार में भी व्यापार किया, ये हद कर दी/ छुप कर मुझ पर वार किया, ये हद कर दी।’
वीरानी की चादर ओढ़े चन्द अश्आर में उदासीनता के साथ ही सकारात्मकता की ओर उन्मुख भावलोक भी देखने को मिलता है। मनोवैज्ञानात्मक पक्ष चन्द अश्आर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। ‘ख़्ाुद से लड़ता रहता हूं/ आगे बढ़ता रहता हूं।’ भीतरघाती पर कटाक्ष का अन्दाज़ देखिए ग़ज़ल के मतला में—‘वो कोई अख्ाबार नहीं था/ मुझ को तुझ से ख़्ातरा ना था।’ तहज़ीब की जानिब से बेफि़क्र होती जा रही नौ-नस्ल पर तंज़ भी है :- ‘कब तक ख्ौर मनाती इस्मत/ खिड़की तो थी पर्दा ना था।’ अय्यारी को परिभाषित करता है ये शे’र :- इक दिन तू भी फंस जाएगा/ ऐसे जाल बिछाता है वो।’ शायर मुफ़लिसी के जि़म्मेदार आकाओं से सवाल भी करता है : ‘बचपन भूखा घूम रहा/ मुंह में नहीं निवाला क्यों।’
‘आबशार’ की ग़ज़लियात के मज़मून अपनी जानिब ध्यान खींचते हैं। जीवन की अठखेलियों, धूप-छांव, रंगीनियों का अक्स भी है इनमें।
पुस्तक : आबशार ग़ज़लकार : डॉ. अजय त्रिपाठी ‘वाक़िफ़’ प्रकाशक : आस्था प्रकाशन गृह, जालंधर पृष्ठ : 96 मूल्य : रु. 295.