लोकतंत्र के हित में नहीं प्रतिशत में कमी
राजनीतिक दलों और लोकतंत्र के अनुरागियों के लिये यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि आखिर चरण-दर-चरण मतदान में कमी क्यों देखी जाती रही है। निश्चित रूप से मतदान प्रतिशत में कमी चुनाव आयोग के लिये भी मंथन का विषय होना चाहिए। अब तक हुए चार चरणों में हुए मतदान के प्रतिशत में पिछले आम चुनाव के मुकाबले कमी देखी गई है। इस कमी के रुझान ने सत्ता के आकांक्षी राजनीतिक दलों की नींद उड़ायी है। हालांकि, सत्ता पक्ष व विपक्ष मतदान में कमी की अपनी सुविधा से व्याख्या कर रहे हैं। सत्ता पक्ष के नेता कह रहे हैं कि वोट विपक्षी दलों के घटे हैं। वहीं विपक्ष इसकी व्याख्या सत्ता पक्ष से मोहभंग के रूप में कर रहा है। कुछ लोग मतदान में कमी की वजह गर्मी व प्रतिकूल मौसम को बता रहे हैं। तो कुछ लोग कह रहे हैं, जब पहले ही कहा जा रहा था कि अबकी बार फलां आंकड़ा पार तो फिर ज्यादा मतदान की क्या आवश्यकता है। बहरहाल, मतदान में कमी को राजनेताओं के प्रति घटते विश्वास के रूप में भी देखा जाना चाहिए। दरअसल, कथनी-करनी के फर्क से जनता राजनेताओं से इतनी खिन्न हो चुकी है कि वह नेताओं के वायदों-इरादों पर विश्वास करने से गुरेज करती है। बार-बार छलने से उसका राजनेताओं से मोहभंग होता जा रहा है। दरअसल, सत्ता केंद्रित राजनीति के चलते सत्ता के दंभ से लेकर दल-बदल और सरकारें बनाने-गिराने के खेल से देश का जनमानस व्यथित है। आये दिन लगने वाले आरोप-प्रत्यारोप व नकारात्मक राजनीतिक हथकंडों ने बार-बार जनता का मोह भंग ही किया है। उसे लगता है कि क्या मेरे मतदान कुछ बदलेगा भी? एक राजनेता एक बार किसी दल से चुनाव लड़ता है और फिर पाला बदलकर दूसरे दल में चला जाता है, उससे क्या लोकतंत्र का भला होगा? ऐसे ही कई सवाल मतदाता को आये दिन हैरान-परेशान करते रहते हैं। जिसका असर कालांतर मतदान प्रतिशत पर भी पड़ता है।
बहरहाल, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुए पहले मतदान में प्रतिशत का अधिक रहना सुखद ही है। जो घाटी के लोगों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बढ़ने को दर्शाता है। कालांतर ये इस केंद्रशासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने और यथाशीघ्र विधानसभा चुनाव करवाने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। बहरहाल, पूरे देश में चुनाव प्रतिशत में कमी के रुझान पर चुनाव आयोग को भी गंभीर मंथन करना चाहिए कि मतदान बढ़ाने के लिये देशव्यापी अभियान चलाने के बावजूद वोटिंग अपेक्षाओं के अनुरूप क्यों नहीं हो पायी। वहीं राजनीतिक दलों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि मतदाता के मोहभंग की वास्तविक वजह क्या है। उन्हें अपनी रीतियों-नीतियों तथा घोषणापत्रों की हकीकत को महसूस करना होगा। यह भी कि जनता में यह धारणा क्यों बन रही है कि वायदे सिर्फ वायदे बनकर ही रह जाते हैं। कुल मिलाकर देश में राजनीतिक धारा को लेकर जनता में जो अविश्वास गहरा हो रहा है, उसे यदि समय रहते दूर करने का प्रयास न किया गया तो आने वाले समय में उसके नकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं। राजनीतिक दलों को एक -दूसरे पर आक्षेप करने का अधिकार है, लेकिन गरिमा बनी रहे। नेताओं को फेक न्यूज का सहारा लेने से बचना चाहिए। आरोपों के स्तर में लगातार आ रही गिरावट भी गंभीर चिंता का विषय है। इससे धीरे-धीरे जनप्रतिनिधियों व जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रतिष्ठा के अनुरूप कदापि नहीं कहा जा सकता। इसके साथ ही यह भी चिंतन करना होगा कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी क्यों हम आम मतदाता को इतना जागरूक नहीं कर पाये कि वो वोट डालने को अपना नैतिक दायित्व मान सके। आंध्र प्रदेश की वे घटनाएं विचलित करती हैं जिसमें कुछ मतदाताओं ने मतदान की पूर्व संध्या पर हंगामा किया कि उन्हें वोट के बदले मिलने वाले रुपये कम मिले या नहीं मिले। इसी तरह आंध्र प्रदेश में ही एक रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने वोट के बदले कॉलोनी के लिये जनरेटर आदि की मांग की। निस्संदेह, बेशकीमती वोट की ऐसी सौदेबाजी भी हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।