प्राकृतिक संसाधनों का तार्किक उपयोग ही समाधान पर्यावरण संकट
ज्ञाानेन्द्र रावत
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ आज समूची दुनिया के लिए भयावह खतरे का सबब बन चुकी है। तापमान में वृद्धि, मौसम में बदलाव और जलवायु परिवर्तन इसके जीवंत प्रमाण हैं। इन प्रकोपों से दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही है। इस सबके पीछे मानवीय गतिविधियां जिम्मेदार हैं जिसने दुनिया को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। दुनिया में जिस तेजी से पेड़ों की तादाद कम होती जा रही है, हकीकत में उससे पर्यावरण तो प्रभावित हो ही रहा है, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि और मानवीय जीवन ही नहीं, बल्कि भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता पर भी भीषण खतरा पैदा हो गया है।
विश्व बैंक ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से संबंधित रिपोर्ट में कहा है कि पर्यावरण प्रदूषण के चलते हो रही तापमान में बढ़ोतरी के लिए दैनंदिन घटती जैव विविधता और मानवीय गतिविधियां सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। जैव विविधता घटने की वजह से धरती लगातार गर्म होती जा रही है जिससे अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के साथ-साथ दुनिया में तीसरे सबसे अधिक बर्फ के भंडार माने जाने वाले कनाडा के ग्लेशियर संकट में हैं। इनके पिघलने से इस सदी के अंत तक दुनिया भर के समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हो जायेगी जिससे दुनिया के समुद्र तटीय बड़े शहरों के डूबने का खतरा बढ़ जायेगा।
गौरतलब है कि प्रकृति मनुष्य की भोजन, पानी, साफ हवा, औषधि सहित जीवन की कई मूलभूत जरूरतों की पूर्ति करती है। लेकिन हमने भौतिक सुखों की चाह में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की जिसके कारण पर्यावरण तो बिगड़ा ही, जंगल, जीव और मनुष्य के बीच की दूरियां भी कम होती चली गयीं।
दुनिया के वैज्ञानिक बार-बार कह रहे हैं कि इंसान जैव विविधता के खात्मे पर आमादा है। जबकि जैव विविधता का संरक्षण हमें बीमारियों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समृद्ध जैव विविधता हमारे अस्तित्व का आधार है। यदि वनों की कटाई पर अंकुश नहीं लगा तो प्रकृति की लय बिगड़ जायेगी और उस स्थिति में वैश्विक स्तर पर तापमान में दो डिग्री की बढ़ोतरी को रोक पाना बहुत मुश्किल हो जायेगा। ऐसी स्थिति में सूखा और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम से आर्थिक हालात और भी प्रभावित होंगे जिसकी भरपायी आसान नहीं होगी।
अमेरिका की ए एंड एम यूनिवर्सिटी स्कूल आफ पब्लिक हेल्थ के एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पेड़-पौधों की मौजूदगी लोगों को मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने में सहायक होती है। अध्ययन में कहा गया है कि हरियाली के बीच रहने वाले लोगों में अवसाद की आशंका बहुत कम पायी गयी है। जैव विविधता न सिर्फ हमारे प्राकृतिक वातावरण के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि ऐसे वातावरण में रहने वाले लोगों के मानसिक कल्याण के लिए भी उतनी ही अहम है।
बीते दो दशकों में समूची दुनिया में 78 मिलियन हेक्टेयर यानी 193 मिलियन एकड़ पहाड़ी जंगल नष्ट हो गये हैं। जबकि पहाड़ दुनिया के 85 फीसदी से ज्यादा पक्षियों, स्तनधारियों और उभयचरों के आश्रय स्थल हैं। गौरतलब यह है कि हर साल जितना जंगल खत्म हो रहा है, वह एक लाख तीन हजार वर्ग किलोमीटर में फैले देश जर्मनी, नार्डिक देश आइसलैंड, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों के क्षेत्रफल के बराबर है। लेकिन सबसे बड़े दुख की बात यह है कि इसके अनुपात में नये जंगल लगाने की गति बेहद धीमी है।
लंदन के थिंक टैंक एनर्जी ट्रांसमिशन कमीशन की मानें तो समूची दुनिया में हर मिनट 17.60 एकड़ जंगल काटे जा रहे हैं। पर्यावरण विज्ञानी बर्नार्डों फ्लोर्स की मानें तो एक बार यदि हम खतरे के दायरे में पहुंच गये तो हमारे पास करने को कुछ नहीं रहेगा। यूके स्थित साइट यूटिलिटी बिडर की नयी रिपोर्ट की मानें तो जंगल बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद दुनिया में वनों की कटाई में और तेजी आई है और उसकी दर चार फीसदी से भी ज्यादा हो गयी है। मौजूदा दौर की हकीकत यह है कि दुनिया में हर मिनट 21.1 हेक्टेयर में फैले जंगलों का खात्मा हो रहा है। फिर भी हम इस सबसे बेखबर से हैं।
वर्ष 2004 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली केन्या की पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन मंत्री रहीं बंगारी मथाई का बयान महत्वपूर्ण है कि जल, जंगल और जमीन के मुद्दे आपस में गहरे तक जुड़े हुए हैं। हमने प्राकृतिक संसाधनों और लोकतांत्रिक प्रशासन को बखूबी समझा है। वैश्विक स्तर पर भी यह प्रासंगिक है। प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन आज सबसे बड़ी जरूरत है। जब तक यह नहीं होगा, शांति कायम नहीं हो सकती। नोबेल पुरस्कार समिति की भी यही सोच है। समिति का भी मानना है कि पर्यावरण, लोकतंत्र और शांति के अंतर्संबंधों की पहचान जरूरी है। समिति ऐसे सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने की पक्षधर है जिससे धरती को बचाया जा सके। खासकर ऐसे समय में जब हम पेड़ों और पानी के साथ-साथ जैव विविधता की वजह से पारिस्थितिकी के संकट से जूझ रहे हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि जब तक हम जल, जंगल, जमीन, खनिज और तेल जैसे संसाधनों का उचित प्रबंधन नहीं करेंगे तब तक गरीबी से नहीं लड़ा जा सकता। संसाधनों के उचित प्रबंधन के बगैर शांति कायम नहीं हो सकती। हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, यदि उसे नहीं बदला तो संसाधनों को लेकर नयी लड़ाइयां सामने खड़ी होंगी।