अयोध्या में राम जन्मस्थान मंदिर आस्था का शिखर, संस्कृति का गौरव
इतिहास अयोध्या का है। अयोध्या राम की है। और राम लोक के हैं। लोकतंत्र की परिधि में इस ‘अयोध्याकांड’ का एक चक्र पूरा हो गया। अयोध्या में रामलला का भव्य एवं दिव्य मंदिर बन गया। अयोध्या का गौरव लौट आया। यह सिर्फ राम के जन्मस्थान का मंदिर ही नहीं, भारत की सनातनी आस्था का शिखर भी है। रामजन्मस्थान मंदिर अब इतिहास के खंडहरों से निकल देश के भविष्य का ‘सिंहद्वार’ बन गया है। बाबर ने तलवार के बूते जिस आस्था का ध्वंस चाहा था, वह आस्था पांच सौ साल बाद देश के आहत स्वाभिमान की पुनर्स्थापना करते हुए फिर से उठ खड़ी हुई है। अयोध्या का यह विशाल मंदिर एक प्रमाण है, मजहबी असहिष्णुता के खिलाफ प्रतिकार का। यह मंदिर एक प्रतीक है, अपनी सांस्कृतिक धरोहर से हर कीमत पर जुड़े रहने का। यह मंदिर मिसाल है, शमशीर से निकली उस विचारधारा के ध्वंस का, जो सर्वपंथ, समादर, सर्वग्राही, समता, समरस समाज, उदारता और सहिष्णुता के भारतीय आदर्शों को स्वीकार नहीं करती। यह मंदिर सिर्फ राम का नहीं, उदात्त भारतीय मूल्यों का भी है।
अयोध्या लोकतंत्र की जननी है। आराधिका है। संरक्षिका है। अयोध्या का लोकतंत्र संविधान या परंपरा से नहीं, आचरण की श्रेष्ठता से चलता है। इसलिए अयोध्या का लोकतंत्र लोकमंगल से जुड़ता है। अयोध्या तोड़ती नहीं, जोड़ती है—जीव से ब्रह्म को, आत्मा से परमात्मा को, भक्त से भगवान को, व्यक्ति से समष्टि को, राजा से प्रजा को, मनुष्य से मनुष्य को, खंडित से अखंडित को, अगड़ों से पिछड़ों को, बूंद से समुद्र को, वनवासी आदिवासी को राज्य से। ऐसी कितनी ही बहुलताओं को जोड़ने वाली अटूट ताकत का नाम ‘अयोध्या’ है।
अयोध्या का मंदिर राम का है। राम कण-कण में हैं। हमारे भाव की हर हिलोर में राम हैं। कर्म के हर छोर में राम हैं। राम यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं। जिसमें रम गए, वही राम है। यहां सबके अपने-अपने राम हैं। गांधी के राम अलग हैं। लोहिया के राम अलग। वाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है। भवभूति के राम दोनों से अलग हैं। कबीर ने राम को जाना। तुलसी ने माना। निराला ने बखाना। राम एक ही हैं, पर दृष्टि सबकी भिन्न है। भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यवत्ता और संयम का नाम है राम। आप ईश्वरवादी न हों, तो भी घर-घर में राम की गहरी व्याप्ति से उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम तो मानना ही पड़ेगा। एक ऐसा लोकनायक, जिसमें सत्ता के प्रति निरासक्ति का भाव है। अयोध्या में ऐसे राम के मंदिर पर अब नए भारत की इमारत खड़ी होगी।
अयोध्या की शक्ति
राम की अयोध्या महज एक शहर नहीं, एक समदर्शी विचार है। अयोध्या भक्ति और समर्पण का प्रतीक है और भक्ति सर्वहारा का आंदोलन है। अयोध्या की सामाजिक व्यवस्था में विभाजन का आधार रोजगार है। व्यक्ति को श्रम या उत्पादन करना पड़ता है। भरत अपने हाथ से कपड़ा बुनते हैं। अयोध्या ने जाति को महत्व नहीं दिया। वहां आचरण श्रेष्ठ है, जाति नहीं। इसलिए शबरी, निषाद सब राम के बृहत्तर परिवार के सदस्य हैं। अयोध्या दुष्टों को भय और निराश्रितों को अभय देती है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम, राजा रामचंद्र:, रामभद्र:, राजीवलोचन, शाश्वत:, जानकी वल्लभ:, लिखित और अलिखित रामकथाओं में राम के ऐसे 108 नाम प्रचलित हैं। कहीं राम दशरथ पुत्र हैं, कहीं चक्रवर्ती सम्राट्, कहीं कौशल्या नंदन, तो कहीं जनार्दन। जैसा जिसने देखा, वैसा उसने माना। लेकिन अलग-अलग कालखंड में भी एक सर्वसहमति रही राम के लोकतांत्रिक मूल्यों पर। यह सच है कि राम राजतंत्र की व्यवस्था का हिस्सा थे, लेकिन राम राजतंत्र में गणतंत्र की घोषणा भी थे। वाल्मीकि रामायण ‘लोकतंत्र की आधारशिला’ है। राम का लोकतंत्र आज के लोकतंत्र से भी गहरा है। आमतौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुमत के सिद्धांत पर चलती है, मगर रामराज में बहुमत नहीं, सर्वमत चलता है। उनके लोकतंत्र में भाईचारा, प्रकृति, पर्यावरण की सुरक्षा, दलितों, आदिवासियों, वनवासियों के साथ सद्भाव है। पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता, वन्यजीवों के लिए दोस्ताना व्यवहार है। तुलसी की रामकथा के तीन वाचक और तीन श्रोता हैं—पहले शिव, फिर याज्ञवलक्य और काकभुशुंडी। श्रोता भी तीन हैं—पार्वती, भरद्वाज और गरुड़। काकभुशुंडी कौवा जाति के हैं। पक्षियों में निकृष्ट। गरुड़ पक्षियों में श्रेष्ठ। काकभुशुंडी के पांडित्य के कारण ही गरुड़ उनके शिष्य बनते हैं। यानी पिछड़ी जाति का कोई भी व्यक्ति अगर पंडित है, ज्ञानी और गुणी है, तो वह पूज्य है। राम हमारे देश की उत्तर-दक्षिण एकता के अकेले सूत्रधार हैं। इसलिए अयोध्या का यह मंदिर हमारे देश की सामाजिक, भौगोलिक एकता व अखंडता का प्रतीक भी बनेगा।
राम जिस धर्म, मर्यादा, विनय और शील के लिए जाने जाते हैं। उसकी जननी ‘अयोध्या’ है। अयोध्या बाकी दुनिया के लिए प्रेरणास्थल है। मंदिर के जरिये इसे और विस्तार मिलेगा। अयोध्या के इस गौरव का विस्तार भारतीय जाति की खोई गरिमा के प्रकटीकरण का एक उपक्रम होगा। अयोध्या वीतरागी है। भक्ति में डूबी अयोध्या का चरित्र अपने नायक की तरह धीर, शांत और
निरपेक्ष है।
राम की अयोध्या
आखिर ये राम हैं कौन? जिनका नाम लेकर एक वृद्ध गांधी अंग्रेजी साम्राज्य से लड़ गया। जिसके नाम पर इस देश में आदर्श शासन की कल्पना की गई। उसी ‘रामराज्य’ के सपने को देख देश आजाद हुआ। गांधी ने अपने सपने को ‘सुराज’ कहा। विनोबा इसे ‘प्रेम योग’ और ‘साम्य योग’ के तौर पर देखते थे। वाल्मीकि अपने ‘रामराज्य’ की व्याख्या करते हैं—
काले वर्षति पर्जन्य: सुभिक्षंविमला दिश:
हृष्टपुष्टजनाकीर्ण पुरू जनपदास्तथा॥
नकाले म्रियते कश्चिन व्याधि: प्राणिनां तथा
नानर्थो विद्यते कश्चिद् पाने राज्यं प्रशासति॥
यानी जिस शासन में बादल समय से बरसते हों। सदा सुभिक्ष रहता हो, सभी दिशाएं निर्मल हों। नगर और जनपद हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरे हों। जहां अकाल मृत्यु न होती हो, प्राणियों में रोग न हो, न किसी प्रकार का अनर्थ हो। पूरी धरा पर एक समन्वय और सरलता हो, यानी प्रकृति के साथ सहज तादात्म्य हो, वही रामराज्य है। अयोध्या का राममंदिर इन्हीं भारतीय मूल्यों की अभिव्यक्ति है। क्योंकि राम सिर्फ शासन व्यवस्था के आदर्श नहीं हैं। राम पुरुषार्थ से शासक बनते हैं। परमार्थ से साधु। राम अहंकारी से सब छीनते हैं। शरणागत को सब देते हैं। इसीलिए राम आतंक के खिलाफ भी खड्गहस्त होते हैं। आज दुनिया में आतंकवाद सबसे बड़ी समस्या है। राम त्रेता में ही आतंक के खात्मे का प्रण करते हैं। ‘निसिचर हीन करउं महि भुज उठाइ पन कीन्हि।’ यानी दुनिया में आतंक से लड़ने की ताकत का ‘पावर हाउस’ भी अयोध्या का यह मंदिर बन सकता है। अयोध्या का मतलब ही ‘आतंक के खिलाफ’ है। जिससे युद्ध न हो सके। जो किसी आतंक के आगे न झुके। वैदिक ऋषि भी अयोध्या के इस संघर्षधर्मी मंदिर की नवय्यत बताते हुए कहते हैं कि मंदिर की सबसे पुरानी संकल्पना मनुष्य के शरीर में ही निहित है। मंदिरों की पहली नींव पड़ने के बहुत पहले से ही मनुष्य का तन प्रकृति का सबसे मौलिक मंदिर है। मंदिरों के स्थूल संदर्भ तो दूसरी सदी में शुरू होते हैं। पर शरीर मंदिर के ‘अथर्ववेदीय’ संदर्भ अयोध्या में पहले से उपस्थित हैं। यह अयोध्या सहस्रार में है। अयोध्या शरीर का वह बिंदु है, जो हमारी चेतना के प्रस्फुरण का चरम है। इस बिंदु को कोई व्याधि या विकार जीत नहीं सकता।
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥
तस्मिन् हिरण्यमये कोषे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।
तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः॥
(अथर्ववेद, 10/2/31-32)
अथर्ववेद कहता है, यह आठ चक्र और नौ द्वारों का शरीर ही अयोध्या है। इसमें एक हिरण्यमय कोश है, जहां स्वर्ग की ज्योति विराजती है। इस कोश में ही आत्मा का निवास है। इस आत्मा में जो परमात्मा विद्यमान है, ब्रह्मज्ञानी उसे ही जानने की कोशिश करते हैं। इसी अयोध्या के स्वर्णिम आध्यात्मिक कोश में अब भगवान राम मंदिर की शक्ल में अपनी पूरी भव्यता के साथ विराज गए हैं एक लंबे संघर्ष के बाद। यहां तक आते-आते भारत के मौलिक पुरुषोत्तम की एक यात्रा पूरी होती है। भारत को अपने ‘राष्ट्रपुरुष’ का तीर्थ मिल गया। जो अब तक सिर्फ हमारे मन-मंदिरों में बसता था।
मंदिरों की यात्रा ‘शरीर मंदिर’ से ‘प्रकृति मंदिर’ से होते हुए स्थूलमंदिर तक आती है। जहां असंख्य ऊर्जाओं को संयोजित किया जाता था। यहां राष्ट्र की कल्पना बहुआयामी है। राष्ट्र एक भूगोल भी है। राष्ट्र एक शाश्वत परंपरा भी है। और राष्ट्र मनुष्यता के आदर्शों के चरम की खोज भी है। राष्ट्र चेतना की यात्रा भी मनुष्य की चेतना यात्रा की तरह ‘अष्टचक्र: नवद्वारा’, शरीर में मूलाधार से सहस्रार तक होती है। मूलाधार है इतिहास और परंपरा, और सहस्रार है राष्ट्र पुरुष का आदर्श।
राष्ट्रपुरुष राम
राम भी भारतीय जनमानस की अवधारणा और इतिहास के मूलाधार से ऊपर उठते हैं। वे पुराण, लोक और काव्य से होते हुए भारत की सांस्कृतिक चेतना के सहस्रार पर विराजमान होते हैं। इसलिए राम हमारी सर्वश्रेष्ठ कल्पनाओं और आदर्शों के हिरण्यमय कोश हैं।
राष्ट्रपुरुष की सूक्ष्म अवधारणा राम के चरित्र में विग्रहवान होती है। एक आदर्श भारतीय चरित्र जिस संघर्ष, तप, त्याग, सत्य, समन्वय और तितीक्षा से बनता है। उस कसौटी पर राम खरे उतरते हैं। राम वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में वैविध्य के बीच समन्वय और समावेश के सुमेरु हैं। इसीलिए कहा गया—‘जहां राम वहीं अयोध्या’। अयोध्या सनातन है। अजन्मा है। अनंत है। व्यापक है। निस्सीम है। आदि और अनादि है। और राम अयोध्या से बहने वाला वह ‘रस’ है, जिसे तुलसी ‘रसायन’ कहते हैं। ‘राम रसायन तुम्हरे पासा’।
यही ‘राम रसायन’ है। इस राम रसायन से अयोध्या सदियों से रससिक्त है, पर इस रस के अवगाहन में सदियों से रुकावट थी। अयोध्या संघर्ष और बदलाव से जूझ रही थी। उसके केंद्र में विचारधाराओं का टकराव था। एक विचारधारा उपासना, स्वातंत्र्य, सर्वपंथ सद्भाव, पंथनिरपेक्षता पर टिकी थी तो दूसरी मजहबी एकरूपता, धार्मिक विस्तारवाद और सामुदायिक असहिष्णुता पर टिकी थी। अयोध्या के सांस्कृतिक मायने को उन ‘तीन गुंबदों’ ने बदल दिया था, जो ‘बाबरी’ की शक्ल में वहां पांच सौ साल से खड़े थे। राष्ट्र की स्मृति पर ये गुंबद विजेता की तरह सवार थे। ये गुंबद निरंतर हमारे अवचेतन में शासक-शासित का भाव जगाते रहे। विगत डेढ़ सौ सालों में देश की राजनीति इन्हीं गुंबदों के इर्द-गिर्द घूमती रही।
राम की अनुकरणीयता, पुरुषार्थ, सर्वजनीनता और सर्वव्यापकता ने इस गुंबद की राजनीति का अंत कर दिया। उसकी जगह विराट और सूक्ष्म, सगुण और निर्गुण, वैदिक और लोकायत संकल्पनाओं का पूंजीभूत ऊर्जा केंद्र यह मंदिर बन गया। मैं उन तारीखों का चश्मदीद रहा हूं, जिन से अयोध्या की शक्ल, चरित्र और मायने बदलने की कोशिश हुई। अयोध्या का सच बदलने का षड्यंत्र हुआ। पर जो बदला गया, वह अयोध्या का सच नहीं था। अयोध्या का सच हमारी विरासत, परंपरा, सांस्कृतिक इतिहास में इस तरह गहरे तक धंसा हुआ था, जिसे निकालना नामुमकिन था। भारत के मानचित्र में राम की यात्रा उत्तर से दक्षिण को है। बाद में इसी रास्ते भक्ति दक्षिण से उत्तर की ओर आती है। ‘भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद, प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड।’ भक्ति का यह तत्त्व राम को घर-घर और घट-घट व्यापी बनाता है।
राम इस देश की कई संस्कृतियों का प्रतीकात्मक समन्वय हैं। वे अवतार-परंपरा में शिव, विष्णु और शक्ति को जोड़ते हैं और समाज-परंपरा में सम्राट् और निषाद, रानी और भीलनी, वानर और ऋक्ष, युद्ध और त्याग, शौर्य और शरणागति...इतने परस्पर विरोधी ध्रुवों को वे जोड़ते हैं कि उनका यह मंदिर अब उस चेतना का केंद्र भी बनेगा, जहां राम और राष्ट्र एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं। इसलिए अयोध्या के रामलला मंदिर को आप हमारी राष्ट्रीयता का मंदिर भी कह सकते हैं। नागर शैली में बने इस मंदिर का शिखर राष्ट्रीय स्वाभिमान का शिखर बनेगा।
रामराज से निकलते लोकतंत्र के सूत्र
राम ने आतंक का खात्मा किया। दुनिया आज फिर आतंक से जूझ रही है। राम का मन उस वक्त दंडक वन में ऋषि-मुनियों की अस्थियों के ढेर को देखकर विचलित हो गया। गुस्से में उन्होंने हाथ ऊपर उठाकर प्रण किया कि ‘मैं धरती को निशिचरों के आतंक से मुक्त करूंगा।’ ‘निसिचर हीन करहुं महि भुज उठाई पन कीन्ह।’ निशिचर कौन हैं? जो अंधेरगर्दी की सत्ता के अधिष्ठाता हैं। वे अन्याय, अनाचार, अत्याचार, अधार्मिक सत्ता को संरक्षण देते हैं। निरपराध को दंड, दुर्बल का दमन और सज्जन को प्रताड़ना। यह राक्षस राज्य का आदर्श है। राम ऐसे शासन और आतंकियों के खिलाफ संघर्ष के नायक हैं। उनका संघर्ष अपने विरोध से नहीं, धर्म के विरोध से है। दुष्टों का दलन, अधर्म का नाश, धर्म की रक्षा राम के जीवन का आदर्श है। राम सामाजिक और व्यवस्थामूलक अन्याय के खिलाफ संघर्ष के नायक हैं। वह घरेलू और वैयक्तिक विरोध के भी अगुवा हैं। सुग्रीव और विभीषण के संरक्षण का उद्घोष उनके संघर्ष की व्यापकता को विस्तार देता है। अयोध्या में ऐसे राम का मंदिर अन्याय और आतंक के खिलाफ संघर्ष के लिए दुनिया में न सिर्फ प्रेरणा देगा, बल्कि इसका केंद्र भी बनेगा। समूची दुनिया में यह वक्त है, आतंकवाद के खात्मे के लिए ऐसे ही प्रण का।
राम का व्यक्तित्व, लोकतंत्र, लोकमंगल और आदर्श राज्य-व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। उनका कृतित्व लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला है। उन्होंने ‘रामराज्य’ नाम की जिस वैचारिकी का सूत्रपात किया। दुनिया के लगभग सभी लोकतंत्र का अंतिम लक्ष्य वही है। लोकतंत्र के सारे सूत्र इसी रामराज्य से निकलते हैं। तुलसी का रामराज्य समतामूलक है। उसमें राज्य की अनीति के प्रति गुस्सा है। जनतंत्र की नई अवधारणाएं हैं और लोकतंत्र के चरम आदर्शों की कल्पना है। राम जिस धर्म और मर्यादा के लिए जाने जाते हैं, वह दुनिया के लिए अनुकरणीय है। रामराज्य का केंद्र अयोध्या है। हमें उसी अयोध्या को विस्तार देना है। ऐसे अलौकिक सूत्रों का घनीभूत विचार यह मंदिर हो सकता है। जो दुनिया को समतामूलक, समरस, सौहार्द, सहिष्णुता के लोकतंत्र का ककहरा पढ़ाएगा। आज की अयोध्या दुनिया में मनुष्यता के नए भविष्य का खुलता हुआ द्वार होगी।