राज कपूर की 100वीं जयंती: राहुल रवैल ने ‘शोमैन' की फिल्म निर्माण प्रक्रिया, रोचक आदतों को किया याद
नई दिल्ली, 9 दिसंबर (भाषा)
Raj Kapoor: हिंदी फिल्मों के वास्तविक ‘शोमैन' कहे जाने वाले राजकपूर के साथ बतौर सहायक काम कर चुके राहुल रवैल उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि संपादन कक्ष की खिड़कियों पर काला कागज चिपकवा देना, वहां काम करने वालों की घड़ी बाहर ही खुलवाकर रखवा देना या फिर कभी-कभी मक्खन लगे पाव के बीच में जलेबी लगाकर खाने समेत उनकी कई अजीबोगरीब आदतें थीं।
रवैल बताते हैं कि राज कपूर की कुछ आदतें भले ही अजीब हों लेकिन उनका एक ही जुनून था-सिनेमा। यही वजह है “बॉबी” में कीमत की परवाह किये बगैर उन्होंने असली शैंपेन का इस्तेमाल किया। हिंदी सिनेमा को नया आयाम देने वाले राज कपूर ने हमेशा अपने दिल की सुनी और अपने सहायकों को भी ऐसा ही करने को कहा। रवैल का कपूर के साथ आजीवन जुड़ाव रहा। 14 दिसंबर को राजकपूर की 100वीं जयंती से पहले रवैल ने उनसे जुड़ी कई दिलचस्प बातों को याद किया।
निर्देशक रवैल ने ‘पीटीआई-भाषा' के साथ एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘उनका मानना था: ‘मैं सिनेमा की सांस लेता हूं, मुझे सिनेमा से प्यार है और मैं सिनेमा की वजह से यहां हूं।' यह उनका प्रमुख नियम था।'' राज कपूर ने अपनी प्रोडक्शन कंपनी आर.के. स्टूडियो की शुरुआत आजादी के एक साल बाद 1948 में की थी। उनकी पहली फिल्म ‘‘आग'' तब बनी जब वह सिर्फ 24 साल के थे। अगले चार दशकों में उनकी कई फिल्में युवा भारत की सोच और चिंताओं को दर्शाती हैं। अभिनेता, निर्देशक और निर्माता राज कपूर ने ‘‘आवारा'', ‘‘मेरा नाम जोकर'' और ‘‘बॉबी'' जैसी शानदार फिल्में बनाईं।
‘‘लव स्टोरी'', ‘‘बेताब'' और ‘‘अर्जुन'' जैसी हिट फिल्मों के निर्देशक रवैल ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि कोई और राज कपूर बन सकता है। मैं खुशकिस्मत हूं कि मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला और मैंने जो कुछ भी सीखा है, वह सिर्फ उनसे सीखा।'' रवैल ने कहा, ‘‘मैं आखिरी शख्स हूं जो राज साहब के बेहद करीब था (पेशेवर तौर पर)। मुझे नहीं पता कि यह कब तक चलेगा। इसलिए मैं उनसे प्राप्त ज्ञान को छात्रों और युवा फिल्म निर्माताओं तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं।''
रवैल ने बताया कि एक बार उन्होंने देखा कि राज कपूर शॉट लेते समय अपनी उंगलियों पर गिनती कर रहे थे। उत्सुकतावश रवैल ने पूछा कि वह क्या कर रहे थे। रवैल (73) ने कहा, ‘‘उन्होंने कहा, ‘जब शॉट चल रहा होता है, तो मैं संगीत की बीट्स गिन रहा होता हूं। दृश्य में जिस तरह का संगीत होगा, वह मेरे दिमाग में बज रहा होता है और मैं उन बीट्स को गिन रहा होता हूं।'' मुझे लगता है कि यह एक अद्भुत और अनुकरणीय चीज थी।''
रवैल ने कहा कि कपूर, जिनकी फिल्में उनके मधुर संगीत के लिए जानी जाती थीं, हमेशा अपनी टीम को सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करते थे। निर्देशक ने कहा, ‘‘उन्होंने मुझसे कहा ‘आप एक ऐसे उद्योग में काम कर रहे हैं, जहां किसी को भी पूरी जानकारी नहीं है। मुझे भी पूरी जानकारी नहीं है।'' रवैल ने 15 साल की उम्र में राजकपूर के सहायक के तौर पर काम करना शुरू किया था। चाहे वह ‘संगम' का ‘बोल राधा बोल' हो, ‘सत्यम शिवम सुंदरम' का ‘भोर भये पनघट पे' हो या राज कपूर की अंतिम फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली' का ‘सुन साहिबा सुन' हो, उनकी हर फिल्म के गाने समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं। मनमुताबिक शॉट पाने के लिए कपूर कभी-कभी बहुत मेहनत और खर्च कर देते थे।
‘‘बॉबी'' और ‘‘मेरा नाम जोकर'' सहित ‘शोमैन' की कई फिल्मों में सहायक के रूप में काम कर चुके रवैल को ‘‘राज कपूर की विचित्रता'' बहुत पसंद है। उन्होंने कहा कि महज समझदारी ही किसी व्यक्ति की इस उद्योग में सफलता की गारंटी नहीं है। आपके पास कुछ ऐसी खूबी होनी चाहिए जो आपमें जुनून पैदा कर दे। ऋषि कपूर, डिंपल अभिनीत ‘‘बॉबी'' में एक पार्टी के दृश्य की शूटिंग के दौरान, कपूर ने रवैल को शराब जैसा रंग पाने के लिए कोक को पानी में मिलाते देखा।
रवैल ने कहा, ‘‘उन्होंने मुझे मिक्स करते हुए देखा और कहा ‘सामने वाले लोगों (दृश्य में कलाकारों) को असली शराब दो।'' मैंने कहा, ‘सर, नशा चढ़ जाएगा। रवैल ने कहा, ‘‘उन्हें इसे न पीने के लिए कहो। इसलिए मैंने वही किया जो उन्होंने कहा। वह दृश्य में पिस्ता और बादाम भी चाहते थे, मैंने सोचा, यह बहुत महंगा होने वाला है।' इस पर राज कपूर ने कहा ‘‘नहीं, मुझे वही चाहिए और आगे कहा कि उन्हें असली शैंपेन चाहिए।''
फिल्म निर्माता ने 2021 के संस्मरण "राज कपूर: द मास्टर एट वर्क" में कपूर की फिल्म निर्माण प्रक्रिया का विवरण दिया है। उन्होंने कहा कि सामने जूनियर कलाकार थे जो रवैल के “बहुत महंगे 'पिस्ता बादाम' न खाने के निर्देश के बावजूद उसे खाते रहे।” उन्होंने बताया, “उनमें से दो उसे खाते रहे और इसे फिल्म में बरकरार रखा गया। मैं इसके लिए उन्हें मार सकता था लेकिन वे रुक नहीं सके।”
राज कपूर की फिल्मों के अंतिम कट के दौरान, फिल्मकार सहित किसी भी सहायक या टीम के सदस्य को संपादन कक्ष के अंदर घड़ी पहनने की अनुमति नहीं थी। ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि काम बाधित न हो। रवैल ने कहा, ‘‘वह सभी खिड़कियों पर काला कागज चिपका देते थे ताकि हमें समय का अहसास न हो...जब वह थक जाते थे, तो कहते थे ‘इसे खोलो' और उस समय सुबह के आठ- साढ़े आठ बज जाते थे। वह कहते थे ‘ठीक है, सभी थक गए होंगे। घर जाओ और फिर जल्दी आ जाओ।''
रवैल ने कहा, ‘‘एक कार थी जो हम सभी को घर छोड़ती और वापस ले जाती। समस्या यह थी कि मैं आखिरी व्यक्ति था जिसे छोड़ा जाता था, इसलिए वापसी में गाड़ी में बैठने वाला भी मैं पहला व्यक्ति होता था। मुझे कम समय मिलता था...30 या 45 मिनट के भीतर, कार हमें स्टूडियो ले जाने के लिए वापस आ जाती थी।''
रवैल के मुताबिक, ‘‘श्री 420'', ‘‘बरसात'' और ‘‘जागते रहो'' जैसी अपनी अलग-अलग तरह की फिल्मों के समान कपूर भोजन में भी प्रयोगधर्मी थे। रवैल ने बताया, ‘‘दिन की पहली चर्चा यही होती थी कि हम पूरे दिन क्या खाने वाले हैं। हमें क्या खाना है, इसकी सूची बनाने में करीब दो घंटे लग जाते थे। कोई कहता था कि ठाणे में बहुत अच्छी काली दाल मिलती है, तो कोई कहता था कि वहां का चिकन अच्छा है। भोजनालय की एक सूची बनाई जाती थी और गाड़ी जाकर लोगों द्वारा सुझाई गई जगहों से खाना लाती थी।'' रवैल ने कहा, ‘‘एक दिन, हम शाम को नाश्ता कर रहे थे। उन्होंने एक पाव लिया, उस पर मक्खन लगाने के लिए उसे दो भागों में काटा और बीच में एक जलेबी रखी, और उसे खाने लगे। मैंने कहा, सर, आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?' उन्होंने कहा ‘क्यों? क्या कहीं लिखा है कि मैं नहीं कर सकता?''
रवैल ने याद करते हुए कहा, ‘‘राज कपूर ने कहा मैं वही खाऊंगा जो मुझे पसंद है। मैं तुम्हें इसे खाने के लिए कुछ बेहतर दूंगा। फिर उन्होंने इसे टोमैटो केचप में डुबोया और खाया। तो, ये उस आदमी की अदभुत आदतें थीं।'' दिल्ली में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित होने के महज एक महीने बाद दो जून 1988 को 63 वर्ष की उम्र में कपूर का निधन हो गया। उन्हें हिंदी सिनेमा को वैश्विक दर्शकों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी फिल्मों से वह सोवियत संघ समेत दुनिया के अन्य हिस्सों में बेहद लोकप्रिय थे।