साग का राग
गगन शर्मा
कभी-कभी यादों के झरोखों से अपना अतीत दिखने लग जाता है और फिर वह दिमाग में उतर जम कर बैठ जाता है। बात तब की है जब अस्सी के दशक में हमारा सारा परिवार, तब के मध्य प्रदेश के रायपुर शहर में जा बसा था। उन दिनों रायपुर एक सुस्त, कस्बाई शहर हुआ करता अपनी मंथर गति से चलता हुआ एक शांत, उनींदा-सा, तालाबों का नगर। नये राज्य की राजधानी बनने के बाद पूरी तरह से इसका कायापलट हो चुका है।
एक बार ठंड के दिनों में ऐसे ही विभिन्न खाद्य पदार्थों की रायपुर में उपलब्धि पर चर्चा में मकई का आटा भी आ फंसा। उन दिनों किराने की सबसे नामी दुकान घनश्याम प्रोविजन स्टोर हुआ करती थी। मैंने अपना स्कूटर उठाया और पहुंच गए वहां। घनश्याम जी ने कहा कि सर आज तो यह मेरे पास नहीं है, पर अगली बार जब आप आओगे तो यह आटा यहां जरूर मिलेगा। उन्होंने दूसरी जगह बताई और सामान मिल गया। मकई के आटे के साथ वहां सरसों के साग की उपलब्धि की बात भी कर ली जाए। छत्तीसगढ़ में इस तरह के पत्तेदार साग को भाजी कहते हैं, जैसे पालक भाजी, मेथी भाजी, चना भाजी इत्यादि।
खैर, अपने सहोदर के साथ पहुंच गए टाटीबंध। तरह-तरह की हरी भाजियों को सजाए एक सब्जी विक्रेता महिला से पूछा कि सरसों भाजी है? उसने छोटी बच्चियों की चोटियों की तरह की पांच गुच्छियां हमें पकड़ा दीं। हमने कहा, अम्मा, हमें दो किलो चाहिए। यह सुनते ही उस महिला ने मुंह बाए, आश्चर्यचकित हो हमें ऐसे देखा जैसे हम किसी दूसरे ग्रह से उतरे हों। छत्तीसगढ़ी भाषा में हमारी क्लास लग गई। ‘कितना चाहिए? दो किलो! इतना क्या करोगे?’, ‘खाएंगे’, ‘इत्ता सारा?’ तब तक माजरा हमें समझ में आ गया था, सो बात खत्म करने के लिए कह दिया कि अम्मा! भोज है, बहुत सारे लोग आएंगे।’
उन्होंने उस छोटी सी बजरिया में अपने साथियों को फरमान भेज दिया। जिसके पास जितनी सरसों भाजी थी, सब लेकर हमारे इर्द-गिर्द जमा हो गए। हम एक तरह से तमाशाइयों से घिर गए थे, इसीलिए बिना मोल-भाव किए, साग की जितनी कीमत मांगी गई, देकर, हम तुरंत वहां से निकल लिए।
आज के समय, जब देश-दुनिया की हर चीज हर जगह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, तो वह घटना कुछ अजीब-सी लगती है। कभी तो आश्चर्य भी होता है कि क्या सचमुच वैसा हुआ था। पर जब भी वो वाकया याद आता है बरबस हंसी फूट पड़ती है।
साभार : कुछ अलग सा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम