सज़ा के सवाल
संसद के शीतकालीन सत्र में अभूतपूर्व हंगामे और निलंबन के बीच कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए हैं, जो आजाद भारत में न्यायिक सुधारों की दृष्टि से मील के पत्थर कहे जा सकते हैं। दूरसंचार से जुड़े महत्वपूर्ण विधेयक के अलावा उन औपनिवेशिक कानूनों के बदलाव का रास्ता भी साफ हुआ जो भारतीयों को दंडित करने के लिये ब्रिटिश शासकों ने बनाये थे। इसी क्रम में आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता तथा भारतीय साक्ष्य कानून ने ली है। अब शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन तीन विधेयकों को राज्यसभा की मंजूरी मिलने के बाद ये विधेयक राष्ट्रपति की मोहर लगने पर कानून का रूप ले लेंगे। अभी सार्वजनिक विमर्श में इन नये बनने वाले कानूनों को लेकर ज्यादा जिक्र नहीं हुआ, लेकिन विधेयक में डॉक्टरों के लिये हल्की सजा के प्रावधान को लेकर चर्चाएं जरूर हैं। कहा जा रहा है कि जीवन से खिलवाड़ के प्रश्न पर हल्की सजा का प्रावधान क्यों? जबकि पहले ही कानून उन्हें संरक्षण देता है। दरअसल, संसद द्वारा हाल ही में पारित भारतीय न्याय संहिता में जो बदलाव किया गया है वह डॉक्टरों के लिये तो निश्चय की राहतकारी है, लेकिन यदि वास्तव में जानलेवा लापरवाही होती है तो क्या मरीज को न्याय मिल सकेगा? कुछ लोग इस फैसले की तार्किकता पर सवाल उठाते हैं। दरअसल, भारतीय न्याय संहिता की धारा 106 में किसी लापरवाही से होने वाली मौत के लिये जुर्माने के अलावा पांच साल की सजा का प्रावधान है। मगर इलाज में लापरवाही के प्रकरण में चिकित्सकों को राहत देते हुए इस सजा को घटाकर अधिकतम दो साल व जुर्माना कर दिया गया है। सरकार की दलील है कि लोगों के इलाज करने वाले चिकित्सकों को अनावश्यक दबाव से बचाने के लिये भारतीय मेडिकल एसोसिएशन के आग्रह पर यह कदम उठाया गया है। लेकिन वहीं जानकार मानते हैं कि मरीजों के जीवन रक्षा के अधिकार का भी सम्मान होना चाहिए।
जबकि कानूनी मामलों के जानकार बताते हैं कि चिकित्सा उपचार में लापरवाही से जुड़े कानून की तीन धाराएं अब तक सजा तय करती रही हैं। समय-समय पर आए न्यायिक फैसलों के आलोक में इन धाराओं की विवेचना माननीय न्यायाधीशों ने की है। उल्लेखनीय है कि दो धाराओं की व्याख्या तो शीर्ष अदालत के दो निर्णायक फैसलों के परिप्रेक्ष्य में की गई है। दरअसल, न्यायालय भी मानता रहा है कि विभिन्न कारणों से लापरवाही के गलत आरोपों से चिकित्सकों को संरक्षण दिया जाना चाहिए। वहीं अदालत किसी अन्य पेशे की लापरवाही व चिकित्सीय उपचार की संवेदनशीलता के चलते दोनों में फर्क करने की बात कहती रही है। कोर्ट का मानना है कि उपचार के विभिन्न पहलुओं के चलते हर नकारात्मक परिणाम को लापरवाही नहीं कहा जा सकता। दरअसल, चिकित्सकों को सुरक्षा कवच पेशागत विशिष्टता के चलते दिया गया है। जिसके चलते लापरवाह डॉक्टरों पर मुकदमा दर्ज कराना पहले ही आसान नहीं था। दरअसल, किसी भी लापरवाही के आरोपी डॉक्टर के खिलाफ कोई भी निजी शिकायत तभी दर्ज होती है, जब इस बारे में कोई योग्य डॉक्टर राय देता है। इतना ही नहीं, यदि शिकायत दर्ज हो भी जाती है तो एक बार फिर मामले की जांच करने वाले अधिकारी को चिकित्सकीय राय लेनी होती है। यानी जटिल परिस्थितियों में ही लापरवाह चिकित्सक की गिरफ्तारी अपवाद स्वरूप ही संभव हो सकती है। ऐसे में नागरिक अधिकारों के समर्थक मानते हैं कि लापरवाही करने वाले डॉक्टरों पर पहले मामला दर्ज करना कठिन होता है। वहीं उनके खिलाफ न्यायिक प्रक्रिया शुरू करना और भी कठिन होता है। ऐसे में सवाल उठाया जा रहा है कि यदि वाकई डॉक्टर लापरवाही का दोषी पाया जाता है, तो क्या उसे कम सजा पाने का हक होना चाहिए? खासकर जब चिकित्सा क्षेत्र में पांच सितारा चिकित्सा संस्कृति का वर्चस्व बढ़ रहा है और धनाढ्य वर्ग का चिकित्सा व्यवसाय में दखल बढ़ता जा रहा है तो आम व साधनविहीन वर्ग के हितों की अनदेखी तो नहीं की जा सकती। बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में सरकार भी ऐसी विसंगतियों पर मंथन करे।