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मां बोलियों से दोयम दर्जा सुलूक का सवाल

07:50 AM Feb 21, 2024 IST

विवेक शुक्ला

सारी दुनिया आज जब विश्व मातृभाषा दिवस मना रही है तब पाकिस्तान में बहुत सारे प्रबुद्ध नागरिक इस बात को लेकर अफसोस मना रहे होंगे कि उनके देश के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की गलत भाषा नीति के कारण उनका देश बंटा और अब वहां के सबसे बड़े पंजाब सूबे की जुबान पंजाबी को खत्म किया जा रहा है।
पाकिस्तान में बीती 8 फरवरी को आम चुनाव हुए। जाहिर है, उससे पहले चुनाव प्रचार हुआ। अगर बात सिर्फ पंजाब की करें तो वहां चुनाव प्रचार की भाषा पंजाबी न होकर उर्दू थी। पाकिस्तान मुस्लिम लीग, पाकिस्तान पीपल्स पार्टी, इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी और अन्य दलों के उम्मीदवार उर्दू में अपने भाषण दे रहे थे। इसके विपरीत हमारे हिस्से वाले पंजाब में चुनाव प्रचार सिर्फ पंजाबी में ही होता है। अब संभवत: अप्रैल में जब लोकसभा की 13 सीटों के लिए प्रचार होगा तो लगभग सभी नेता पंजाबी में ही मतदाताओं को रिझाएंगे।
फिलहाल जेल में बंद पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान अपने संसदीय क्षेत्र मियांवाली में चुनावी सभाओं में उर्दू में ही बोलते थे। वे अपनी मातृभाषा पंजाबी में नहीं बोलते थे। ये क्यों होने लगा कि सरहद के उस पार धरती की जुबान को दोयम दर्जे की जुबान मान लिया गया? लाहौर में पंजाबी प्रचार के अध्यक्ष डॉ. तारिक अहमद इस स्थिति के लिए उन लोगों को जिम्मेदार मानते हैं जो देश के बंटवारे के समय मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश या दिल्ली से पाकिस्तान गए थे। वे कहते हैं कि पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की सलाह पर मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा उर्दू घोषित कर दी। उसके चलते बांग्लाभाषी पूर्वी पाकिस्तान आगे चलकर बांग्लादेश बना और पंजाब में पंजाबी अछूत हो गई। बांग्लाभाषियों ने अपनी बांग्ला के लिए 21 फरवरी, 1951 को ढाका में पाकिस्तानी रेंजर्स की गोलियों को खाया था। उन्हीं शहीदों की याद में हर साल 21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।
यकीन मानिए कि पाकिस्तान के हिस्से वाली पंजाब विधानसभा में पंजाबी के लिए कोई जगह नहीं है। वहां पर बहस उर्दू या इंग्लिश में होती है। पंजाबी में बहस करना या सवाल करना निषेध है। मतलब जिस भाषा को वहां पर लोग बोलते-समझते हैं, उसमें असेंबली में बोलने की मनाही है। अपने घर में इमरान खान की पार्टी से संबंध रखने वाले पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री रहे उस्मान बुझदर पंजाबी में बोलते हैं। वे पंजाबी लोकगीत सुनना भी पसंद करते हैं। लेकिन, वे पंजाब असेंबली में उर्दू से इतर किसी भाषा में नहीं बोलते। आपको उनका यूट्यूब पर इंटरव्यू भी मिलेगा जिसमें वे पंजाबी में सवालों के जवाब दे रहे हैं। क्या हमारे पंजाब में कोई मुख्यमंत्री पंजाबी से दूरी बनाकर सियासत कर सकता है? असंभव! लाहौर में रहने वाले पंजाबी के कथाकार रेहान चौधरी पूछते हैं, ‘हमारे स्कूल-कॉलेजों में पंजाबी की पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं। हमारे इधर अब पंजाबी को पढ़ाना तो दूर, इससे पंजाबी समाज का एक तबका पल्ला झाड़ रहा है। यह सब कुछ हो रहा है सरकार की उर्दू परस्त नीति के कारण।’
पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान बनने के बाद पहले 19 मार्च, 1948 को ढाका पहुंचे। उनका वहां गर्मजोशी से स्वागत हुआ। जिन्ना ने 21 मार्च, 1948 को ढाका के खचाखच भरे रेसकोर्स मैदान में एक सभा को संबोधित करते हुए घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी। उन्होंने अपने चिर-परिचित आदेशात्मक स्वर में कहा -‘सिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी। जो इससे अलग तरीके से सोचते हैं वे मुसलमानों के लिए बने मुल्क के शत्रु हैं।’ जिन्ना के फरमान को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) ने सिरे से खारिज कर दिया। पर पंजाब ने जिन्ना के वन नेशन-वन लैंग्वेज फार्मूला को आंखें बंद कर स्वीकार कर लिया। नतीजा, पंजाब से पंजाबी दूर होने लगी। उर्दू पाकिस्तान के किसी भी प्रांत की भाषा नहीं थी। उर्दू का आज के पाकिस्तान से कोई संबंध नहीं रहा।
पाकिस्तान के पंजाब में पंजाबियों का एक प्रबुद्ध वर्ग अपनी पहचान बचाने के लिए लड़ रहा है। वहां पिछली 2017 की जनगणना के समय पंजाब प्रांत के लोग अपनी मातृभाषा उर्दू लिखवा रहे थे। ये घर में बोलते हैं पंजाबी और लिखवा रहे थे उर्दू। देश विभाजन से पहले हिन्दू भी पंजाबी की तुलना में उर्दू और हिन्दी ही सीखते-पढ़ते थे। इस लिहाज से सिख पंजाबी के साथ खड़े रहे। यह बात दीगर है कि देश की आजादी के पश्चात भारत में भाषाई विवाद कमोबेश सुलझ गए। पाकिस्तान में यह नहीं हुआ। वहां अपने को सच्चा पाकिस्तानी बताने के क्रम में बहुत से पंजाबी अपनी मातृभाषा को छोड़ रहे हैं। क्या वे अपनी मां बोली को बदल सकते हैं?
पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी, बलूची, पश्तो और दूसरी धरती की भाषाओं और बोलियों की सरकारी स्तर पर अनदेखी होती रही है। पाकिस्तान में 7-8 फीसद मुहाजिरों की भाषा उर्दू को एक तरह से इस्लाम की भाषा से जोड़ दिया गया। पाकिस्तान में कट्टरपंथी सोच को खाद-पानी देने वाले इस्लाम को उर्दू के साथ जोड़कर बताने लगे। क्या किसी धर्म का सिर्फ किसी एक ही भाषा से संबंध हो सकता है? बेशक, पंजाबी बनाम उर्दू का अगर कोई सौहार्दपूर्ण तरीके से हल नहीं खोजा गया तो पाकिस्तान के सबसे बड़े सूबे में भी भाषाई विवाद पनप सकता है।

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