कर्ज वसूली नीति में विसंगति के यक्ष प्रश्न
कुछेक साल पहले की बात है, हरियाणा का एक किसान भूमिगत पाइप के लिए उधार लिए गए छह लाख रुपये नहीं चुका सका। इस पर स्थानीय अदालत ने उसे दो साल के लिए जेल भेज दिया। इसके अलावा उस पर अतिरिक्त 9.83 लाख रुपये जुर्माना भी लगा दिया गया। केवल हरियाणा में ही नहीं, बल्कि हाल के सालों में देशभर में ऐसे सैकड़ों किसान पैसा न चुका पाने के चलते सलाखों के पीछे पहुंचाए गये, जिनकी ओर बैंकों की मामूली राशि ही बकाया थी। यदि जेल भी न भेजे गये, तो ऐसे किसानों की बड़ी संख्या है जिनकी जमीन कुर्क करने से पूर्व बैंक उनके ट्रैक्टर व अन्य अचल संपदा को जब्त करते रहे हैं।
आमतौर पर फसल नष्ट होने या फिर रेट गिर जाने की वजह से किस्तों का भुगतान न कर सकने वाले इन छोटी अवधि के बकायेदारों के बचाव में आने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने भी, धोखा करने वाले और जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले अमीरों को रक्षा कवच प्रदान किया है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार कर आरबीआई ने जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों के रूप में वर्गीकृत खातों के लिए समझौता निपटान या तकनीकी बट्टे खाते में डालने की अनुमति राष्ट्रीयकृत बैंकों को दी है। बारह महीने की ‘कूलिंग अवधि’ के बाद, ये डिफॉल्टर, जिनके पास भुगतान करने की क्षमता है लेकिन पैसा लौटाने से इनकार करते हैं, नये लोन प्राप्त कर सकते हैं।
जैसा कि आरबीआई कहता है, यदि यह समाधान का एक वैध तंत्र है तो पहले इसी प्रश्न का उत्तर दिया जाना चाहिये कि क्यों किसी विरले मामले में ही यह समाधान एमएसएमई सेक्टर और किसानों पर लागू होता है, या फिर उस मध्यम वर्ग पर भी कभी-कभार ही क्यों लागू हुआ हो जो टैक्स देने के बाद बची अपनी मेहनत की कमाई से कार लोन या गृह ऋण लेते हैं। इसके अलावा कोई कारण नहीं बनता कि क्यों बैंकों, नॉन बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और माइक्रो फाइनांस संस्थाओं द्वारा रखे गये भाड़े के लोग कर्ज चुकाने में असमर्थ लोगों की अचल संपत्तियां जब्त करने के लिए नियमित तौर पर कड़े और अशिष्ट हथकंडे अपनाते हैं। हाल ही के एक मामले में एक ऋण डिफाल्टर से रिकवरी एजेंटों द्वारा टोल बैरियर पर ही कार जब्त कर ली गयी। इसी तरह एक अन्य मामले में झारखंड में कर्ज न चुका पाने वाले एक किसान की गर्भवती बेटी की मौत के लिए एक नॉन बैंक वित्तीय कंपनी के प्रमुख ने क्षमा मांगी है। उस लड़की को रिकवरी एजेंटों ने उस वक्त कुचल डाला था जब वे उसके किसान पिता का लोन पर लिया गया ट्रैक्टर लेकर भागने का प्रयास कर रहे थे। आरबीआई ने इस ओर से नजरें फेर ली थीं।
असल में सबसे पहले तो आरबीआई के उस विवादास्पद सर्कुलर से बेहद हैरान हूं, जिसने बैंकों को जानबूझकर ऐसे डिफाल्टर्स के साथ समझौता निपटान करने की अनुमति दी, जिन्हें वास्तव में अब तक जेल में होना चाहिए था। दूसरे, इस सर्कुलर के बारे में मुद्दा उछलने के बाद जारी किए गए सतही स्पष्टीकरण से जवाब मिलने के बजाय और अधिक सवाल खड़े हो गए हैं। यह यही दर्शाता है कि आरबीआई की उदारता केवल अमीर डिफॉल्टरों के लिए है, जो यूं भी बैंकिंग नियामक द्वारा तय नियमों-विनियमों की कोई खास परवाह नहीं करते हैं। अन्यथा कैसे और क्यों जानबूझकर डिफाल्टरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, जो बीते दो सालों में 41 फीसदी तक बढ़ चुकी है।
जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों की संख्या पिछले कुछ वर्षों में बढ़कर 16,044 हो गई है- जिन पर बैंकों का सामूहिक रूप से 3.46 लाख करोड़ रुपये बकाया है। इसके अलावा, मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि पिछले सात वर्षों में बैंक धोखाधड़ी और घोटालों में हर दिन 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। कई जानबूझकर कर्ज न लौटाने वाले जिनमें विजय माल्या, मेहुल चोकसी और ललित मोदी जैसे लोग शामिल हैं, जो देश छोड़ भाग गए, को अब बैंकों के साथ समझौते के तहत राहत मिलेगी, उनमें कई भारी राइट-ऑफ (कर्ज बट्टे खाते) प्राप्त करने और फिर भी नए ऋण मांगने के लिए योग्य होंगे।
हैरानी है कि आरबीआई की ओर से ऐसी दरियादिली कभी छोटी राशि के ऋण डिफाल्टरों के प्रति क्यों नहीं दिखाई गयी जिनमें किसान भी शामिल हैं। छोटे किसानों को जेल की सजा क्यों भुगतनी पड़ती है, जबकि अमीर धोखेबाज व्यवसायियों को नियमित जमानत मिलती है, भारी कटौती होती है और उनका शानो-शौकत की जिंदगी चलती रहती है।
कई बार मैं सोचता हूं कि बैंकिंग सिस्टम अपने आप में ही बढ़ती असमानता का प्राथमिक कारण है। आखिरकार, यदि बैंकिंग सिस्टम के साथ धोखाधड़ी करने वाले कर्जदारों के साथ बैंक नाजुकपन से पेश आयेंगे तो यह उसी गेम प्लान को उजागर करता है जो अमीर वर्ग को धन बटोरने में मददगार बनती है। बैंक उन्हें जनता के पैसे से छूट देकर उबारना जारी रखते हैं। पहले ही, बीते दस सालों में 13 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का एनपीए बट्टे खाते डाल चुके हैं और जानबूझकर डिफाल्टर्स के लिए समझौता फार्मूला तैयार करने की बैंकों को दी गयी विवेकाधीन शक्ति ऐसे अमीरों के लिए सोने में सुहागा जैसा काम करेगी।
हालांकि अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ आरबीआई की नीति के आलोचक रहे हैं,वहीं अधिकांश व्यावसायिक मीडिया इसका समर्थक रहा है। इससे भी अधिक रोचक यह कि जब भी कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाने वाला कोई मुद्दा सामने आता है, कितना भी गलत निर्णय क्यों न हो, कहीं से भी कार्पोरेट अर्थशास्त्रियों का समूह उसका बचाव करने की कोशिश करता नजर जाता है। यह तब हुआ जब ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने घोर असमानताएं कम करने के लिए संपत्ति कर लगाने के लिए कहा। भारत में कुछ अर्थशास्त्रियों ने तब कहा था कि अमीरों के एक छोटे से वर्ग से संपत्ति कर उगाहना किफायती नहीं होगा। हैरानीजनक है कि कैसे कुछ अर्थशास्त्री, आरबीआई के निर्देश को सही ठहराने की कोशिश करते हुए, यहां तक कह देते हैं कि ऋण की वसूली करते समय, बैंक को कोई अंतर नहीं करना चाहिए कि कर्ज न चुकाने का काम जानबूझकर किया गया, या फिर किसी अन्य तरीके से।
यदि ऐसा है तो मध्यम वर्ग के निवेशकों और किसानों के लिए इस छूट की इजाजत क्यों नहीं दी गयी। यदि किसान और मध्यम वर्ग के डिफाल्टर्स को भी यह लाभ मिलने लगे तो आप देखेंगे कि यही अर्थशास्त्री इस नीति पर सवाल उठा रहे होंगे। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि मीडिया में वे विशेषज्ञ और अन्य लोग जिन्होंने कर्नाटक में रोडवेज बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा पर सवाल उठाया था लेकिन जब 3.46 लाख करोड़ रुपये के संभावित बट्टे खाते में डालने पर सवाल पूछा जाता है और वह भी जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले वर्ग के लिए तो वही लोग चुप्पी साध लेते हैं। उन्हें इस उदारता से कोई दिक्कत नहीं है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि आरबीआई कम से कम गरीब लाभार्थियों के प्रति निहित पूर्वाग्रह से परहेज करेगा। इसके विपरीत, बैंकिंग व्यवस्था के चालबाजों व धोखेबाजों के लिए जीवनदायी लाभ प्रदान करने वाला विवादास्पद सर्कुलर साफ तौर पर दर्शाता है कि आरबीआई को बहुत कुछ सीखना है, और शायद उस ‘दोहरे मानक’ को रोकने के लिए एक ठोस प्रयास करना है जो सभी तरह के आर्थिक लाभ प्रदान करने को लेकर अमीरों का पक्ष लेता है और कथित राष्ट्रीय बैलेंस शीट बिगाड़ने और नैतिक ख़तरा बनने के लिए गरीबों की निंदा करता है।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।