पौराणिक पात्रों की मर्यादा व संवेदनशीलता का प्रश्न
डॉ. मोनिका शर्मा
हाल ही में रिलीज फिल्म 'आदिपुरुष' के कुछ आपत्तिजनक संवादों के मामले में लगाई गई याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सेंसर बोर्ड से कड़े स्वर में सवाल किया कि ‘सेंसर बोर्ड क्या करता रहता है? आप आने वाली पीढ़ियों को क्या सिखाना चाहते हैं?’ इतना ही नहीं , हाईकोर्ट ने यह भी पूछा कि धार्मिक ग्रंथोंविवादित फिल्में बनायी ही क्यों जाती हैं, जो लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाती हैं | इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 'आदिपुरुष' के निर्माताओं और सेंसर बोर्ड को फटकार लगाते हुए कहा है कि 'धार्मिक ग्रंथों को बख्श दें|' न्यायालय ने रेखांकित करने वाली यह बात भी कही कि हिंदुओं की सहिष्णुता के कारण ही चीजें फिल्मकारों की भयंकर भूलों के बाद भी विद्रूप रूप नहीं लेती हैं| ऐसे में हर बार उनकी ही परीक्षा क्यों ली जाती है? न्यायालय ने चेताया है कि पौराणिक पात्रों का मन मुताबिक चित्रण न केवल लोगों की भावनाओं को आहत करने वाला है बल्कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ाता है।
गौरतलब है कि 'आदिपुरुष' पहली झलक सामने आने के समय से ही विवादों में घिरी रही है। शुरुआत से ही आमजन की आलोचना और आक्रोश के चलते न केवल फिल्म के प्रदर्शन की तारीख को टाल दिया गया बल्कि आपत्तिजनक बातों, दृश्यों, परिधानों और चरित्रों के हावभाव को लेकर बदलाव का भरोसा भी दिया गया। बावजूद इसके यह फिल्म जून में सिनेमाई पर्दे पर उतरी तो दर्शकों को निराशा ही हाथ लगी। आस्था के नाम पर छले जाने की यह साझी अनुभूति सोशल मीडिया से लेकर आम परिवेश तक चर्चा का विषय बनी। 'हर भारतीय की आदिपुरुष' टैग के साथ पर्दे पर उतारी गई यह फिल्म असल में हर भारतीय के मन को ठेस पहुंचाने वाला सिनेमा साबित हुई। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के चरित्र से लेकर रावण की भूमिका के महिमामंडन और अभद्र संवादों को सुनकर दर्शक व्यथित-विचलित हुए बिना नहीं रह सके। सिनेमाघरों में पहुंचे दर्शक रामभक्त हनुमान के संवादों की भाषा सुनकर तो सकते में ही आ गए। संवादों की भाषा पर विवाद और फिल्म के बहिष्कार की मांग के बाद निर्माताओं ने इन संवादों को बदलने को कहा है पर दुखद पक्ष यह कि संवाद लेखक मनोज मुंतशिर ने इन अजीबो-गरीब शब्दों का प्रयोग जान-बूझकर किए जाने की बात कही। पात्रों की बातचीत की इस भाषा को नई पीढ़ी से जोड़ने का उपक्रम बताया।
विचारणीय है कि जन-जन की आस्था से जुड़ी प्रभु राम की कहानी कोई नए प्रयोग करने का विषय नहीं है। भले ही संवाद लेखक ने ऐसी प्रयोगात्मक भाषा को नई पीढ़ी से जोड़ने वाला बताया हो, लेकिन इसी कहानी के माध्यम से नई पीढ़ी को मर्यादित भाषा का पाठ भी पढ़ा सकते थे। सम्बन्धों को सहेजने की सीख दे सकते थे। अफसोस कि सिनेमा निर्माण में लगाई समझ ठीक इससे विपरीत नजर आती है। किसी काल्पनिक कहानी की तरह मनमर्जी से प्रस्तुत किए गए पात्र और उनकी भाषा नई पीढ़ी तक रामायण के मर्यादित और सदैव स्मरणीय चरित्रों का अलग ही प्रस्तुतीकरण पहुंचाती है। जो कि धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वास के साथ इरादतन खिलवाड़ करने जैसा लगता है। यही वजह है कि इसका देशभर में एक सुर में विरोध किया गया। आम जनता ने भी फिल्म में मौजूद तथ्यात्मक गलतियों और अमर्यादित शब्दों को गंभीरता से लिया। परिणामस्वरूप रिलीज के तीसरे ही दिन से यह फिल्म कमाई के मोर्चे पर पिछड़ने लगी। तकनीक के तड़के और कुछ नया करने के नाम पर 600 करोड़ के भारी-भरकम बजट में बनी फिल्म दर्शकों के मन को छूने में तो विफल रही ही, निर्माताओं की आशा के अनुरूप आर्थिक मोर्चे पर भी सफलता के झंडे नहीं गाड़ सकी। कल्पनाशीलता के नाम पर दैवीय चरित्रों की अभिकल्पना का यह स्तर दर्शकों द्वारा भी नकार दिया गया।
दरअसल, रामायण का अर्थ ही है मर्यादित आचरण और मानवीय विचार। यह धार्मिक ग्रंथ भारतीयों के मन-जीवन में आस्था को पोसने वाली संजीवनी रहा है। ऐसे में भद्दे और अजीब से कंप्यूटर ग्राफिक, किरदारों के स्तरहीन संवाद और परिधानों के चयन के मामले में फिल्म को समाज के एक बड़े वर्ग की भावनाएं आहत करने वाला ही कहा जाएगा। फिल्मी पर्दे पर उतारे गए चरित्रों का प्रभाव वर्तमान और आगामी पीढ़ियों पर भी पड़ता है। धर्म-संस्कृति आधारित फिल्मों के कथानक और प्रस्तुतीकरण को हल्के में नहीं लिया जा सकता। फिल्म निर्माताओं को भी समझना चाहिए कि पौराणिक चरित्रों के चित्रण में कोई छूट नहीं मिल सकती। ऐसे में पहले टीजर के समय ही विरोध जताए जाने के बावजूद संवादों को उचित ठहराने के कुतर्क अब सोचा समझा षड्यंत्र ही लगते हैं। जन-जन के मन में बसी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथा में ऐसी गलतियां अनजाने में नहीं हो सकतीं। कहना गलत नहीं होगा कि फिल्म आदिपुरुष व्यावसायिक हित साधने के नाम पर धार्मिक आस्था से खिलवाड़ करने का उदाहरण साबित हुई है।
पटकथा के मूल में ही असहज करने वाले भावों को स्थान देने की गलती आमजन को पीड़ा पहुंचाने वाली है। सदा-सदा से मर्यादित मार्ग सुझाने वाले पात्रों की भाव-भंगिमा और संवादों का यह दूषित प्रदर्शन सिनेमाई कला संसार से भी भरोसा कम करने वाला है। सभ्य भाषा और संवेदनशील हाव-भाव के लिए जनमानस में बसे इन आदर्श चरित्रों की बेमेल प्रस्तुति हमारी पौराणिक और सांस्कृतिक विरासत को धूमिल करने वाली है। निस्संदेह, श्रद्धा और समर्पण की शिक्षा देने वाले ग्रंथ रामायण का यह विकृत सिनेमाई रूप किसी भी पीढ़ी के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकता।