गुणवान सहज ध्यान जीवन का करे संधान
निर्विवाद रूप से ध्यान हमारे जीवन के हर कार्यक्षेत्र में गुणात्मक बदलाव लाता है। हमारे लक्ष्यों व उद्देश्यों को पूर्ण करता है। यह सिर्फ ऋषि-मुनियों का ही नहीं, आम व्यक्ति का जीवन संवारने का भी साधन है। आज भारत समेत दुनियाभर में योग व ध्यान के मठाधीशों ने इसे कारोबार व स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बना दिया। ध्यान साधने के लिये पवित्र व संयमित जीवन व एकाग्र मन की जरूरत है। ध्यान कैसे लगाएं, कैसे तैयारी करें, कैसा हो हमारा आचार-व्यवहार, ऐसे तमाम सवाल आम व्यक्ति के सामने होते हैं। इन सवालों के जवाब दे रहे हैं, योग पर कई चर्चित पुस्तकें लिखने वाले योगाचार्य व सूरीनाम (दक्षिण अमेरिका) में भारत के राजदूतावास स्थित स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक डॉ. सोमवीर आर्य।
अरुण नैथानी
सही मायनों में ध्यान शब्द भी लगभग उतना ही प्राचीन है, जितना कि योग शब्द। यही वजह है कि अनेक लोग ध्यान को ही योग समझते हैं। आज किसी से भी पूछो; ध्यान क्या है? तो जवाब मिलेगा, कि किसी एकांत स्थान पर बैठकर, आंखें बन्द कर लेना ही ध्यान होता है। तो क्या कहीं पर भी एकांत स्थान देखकर अपनी आंखें बन्द कर लेने से ध्यान हो जाता है? या फिर ध्यान लगाने के लिए हमें घर का त्याग करके गंगा के तट, हिमालय पर्वत की चोटी, जंगल या फिर गुफाओं आदि में जाना पड़ेगा? इसका सरल सा उत्तर है, कि ध्यान करने के लिए आपको घर अथवा अपना काम छोड़कर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। आप जहां भी हैं, जो भी काम कर रहे हैं, उसे छोड़ने की जरूरत नहीं है। ध्यान के लिए तो केवल ध्यान को समझने की आवश्यकता है।
भागदौड़ भरी जिन्दगी में ध्यान एक ऐसा आवश्यक माध्यम है, जिसका हमारी दिनचर्या में होना अति आवश्यक है। आज हमारे जीवन में दर्शनों, उपनिषदों व मोक्षदायक ग्रन्थों के स्वाध्याय और ज्ञानी महात्माओं के सान्निध्य का अभाव होता जा रहा है। जिसके कारण अज्ञानी लोग ध्यान के विशेषज्ञ बन बैठे हैं। वे ध्यान के नाम पर कुछ भी जटिल तरीक़ा बताने लगते हैं और हम अपनी आंख और विवेक दोनों को बन्द करके उनका अनुसरण करते रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहता तो यही है कि उसका कोई भी कार्य असफल न हो, बल्कि सभी कार्य कुशलता पूर्वक सम्पन्न हों। लेकिन क्या ऐसा सम्भव है कि हम अपने सभी कार्यों को बिना गलती किए, पूर्ण कर सकते हैं? इस प्रश्न के साथ ही एक संबंधित प्रश्न यह भी उठता है, कि क्या ऐसा कोई नियम अथवा सिद्धान्त है, जो हमारे सभी कार्यों को बिना किसी त्रुटि के पूर्ण करने में सहायक हो? ऊपर वर्णित इन सभी प्रश्नों का एक ही प्रामाणिक उत्तर है -‘ध्यान’। बिना ध्यान के किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करना असम्भव है।
ध्यान की सहज व्याख्या
सार्वजनिक जीवन में जिस भी स्थान पर अधिक दुर्घटनाओं की संभावनाएं होती हैं, वहां पर एक वाक्य मुख्य रूप से अंकित किया जाता है, “सावधानी हटी-दुर्घटना घटी”। ये सावधानी ही ध्यान है। जब हम सावधान शब्द का सन्धि विच्छेद करते हैं, तो हमें पता चलता है कि स+अवधान से सावधान शब्द बनता है। इसमें स का अर्थ है “सहित” और अवधान का “ध्यान”। इस प्रकार सावधान शब्द का अर्थ हुआ; जो ध्यान के साथ किया जाये”। अर्थात् जो पूर्ण मनोयोग और सावधानी के साथ किया जाये।
सावधानी अथवा ध्यान के साथ किया जाने वाला कार्य ही सफल होता है। इसके विपरीत जिस भी कार्य को करते हुए ध्यान अथवा सावधानी नहीं रखी जाती, उस कार्य का बिगड़ना अथवा उसमें व्यवधान आना तय है। फिर चाहे वह रसोई में भोजन तैयार करना हो या सड़क पर गाड़ी चलाना। यदि रसोई में भोजन पकाते हुए सावधानी नहीं रखी गई, तो भोजन का ढंग से न पकना या हाथ का जलना संभव है। इसी प्रकार यदि सड़क पर गाड़ी चलाते हुए ध्यान अथवा सावधानी नहीं रखी गई, तो सड़क पर दुर्घटना का होना तय है। इसलिए हम कह सकते हैं कि यह सावधानी ही ध्यान है।
ध्यान का अर्थ एवं परिभाषा
योगदर्शन में ध्यान को अष्टांग योग के सातवें अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। इससे पहले के छह अंग निम्न हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा। ध्यान हेतु इन सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। ये सभी अंग ध्यान को प्राप्त करने के लिए सीढ़ी का काम करते हैं।
ध्यान को समझने से पहले हमें धारणा को समझना पड़ेगा। धारणा को ध्यान का पूर्वाभ्यास कहते हैं। महर्षि पतंजलि ने धारणा को परिभाषित करते हुए कहा है; अपने चित्त को किसी स्थान विशेष पर केन्द्रित कर देना धारणा कहलाती है। दूसरे शब्दों में चित्त की एकाग्र अवस्था को धारणा कहा गया है। जब हम अपने चित्त को किसी एक स्थान विशेष पर स्थिर कर एकाग्र कर देते हैं, तब वह अवस्था धारणा कहलाती है।
इस प्रकार महर्षि पतंजलि द्वारा बताई गई ध्यान की परिभाषा पर मंथन करें तो पाते हैं कि ध्यान की अलग से तो कोई विधि बतायी नहीं गई है। अर्थात् जहां पर धारणा की गई थी, उसी स्थान पर उस धारणा का लम्बे समय तक बिना किसी बाधा के बने रहना ही ध्यान होता है। ध्यान की इस परिभाषा से यह सिद्ध होता है कि ध्यान की कोई विशेष विधि का वर्णन महर्षि पतंजलि द्वारा नहीं किया गया है। उनके अनुसार धारणा का लगातार और लम्बे समय तक बने रहना ही ध्यान कहलाता है। अर्थात् धारणा ही आगे जाकर ध्यान में परिवर्तित हो जाती है। वहीं सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल कहते हैं – ‘मन का सभी विषयों से रहित हो जाना ही ध्यान है।’
ध्यान में चित्त और मन की भूमिका
चित्त और मन हमारे अंतःकरण चतुष्टय के अंग हैं। चित्त का काम विचारों को संगृहीत रखना और उनका संचालन करना होता है। मन को उभ्यात्मक इन्द्री माना गया है, जो संकल्प और विकल्प का काम करती है। जब तक हमारा मन संकल्प- विकल्प आदि विषयों से रहित नहीं हो जाता, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है। इसी प्रकार जब तक चित्त की सभी वृत्तियां नहीं रुक जाती, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है।
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि वर्तमान समय में जितनी भी प्रचलित ध्यान विधियां हैं, क्या वह मन को विषयों से रहित और चित्त को भाव से रहित करने में सक्षम हैं? यदि वह ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, तो हमें पुनर्विचार की आवश्यकता है। आज हमें ध्यान के नाम पर जो रस पिलाया जा रहा है, वह ठीक वैसा ही है, जैसा कि डब्बे में बन्द फ़्लेवर और चीनी घुला हुआ जूस। जो पीने में लगता तो असली जूस के जैसा ही है, लेकिन उसमें असली वाली बात होती नहीं है। इसलिए हमें यह तय करना होगा कि हम जिस रस का पान कर रहे हैं, उसमें किसी प्रकार की मिलावट न हो। वह पूरी तरह से शुद्ध होना चाहिए।
हम किसका ध्यान करें
ध्यान के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करना चाहिए। साधक को उस अन्तर्यामी परमात्मा के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना ध्यान है। इसी प्रकार ऋग्वेद कहता है कि जैसे नदी-नाले आदि जल स्रोत समुद्र में ही समाते हैं, वैसे ही ईश्वर में ध्यान करने वाले साधक अपनी इन्द्रियों को समेटकर परमात्मा के आनंद में निमग्न हो जाते हैं। इसी की पुष्टि करते हुए कहा है कि साधक को अपने मन को परमात्मा में निमग्न करके ध्यान करना चाहिए, जैसे सदा से साधक उस सर्वज्ञ और महान परमेश्वर में मन, बुद्धि और सम्पूर्ण ज्ञान को समर्पित करते आये हैं। ऋग्वेद आगे कहता है कि किसी भी उपासक अथवा साधक को परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की भी स्तुति नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार परमात्मा की उपासना और ध्यान करने से परमात्मा अपने सामर्थ्य से साधकों की बुद्धि को अपने में युक्त कर लेता है। जिससे साधकों की आत्माओं में दिव्य प्रकाश प्रकट होता है।
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान योग को समझाते हुए व उसके फल को बताते हुए कहते हैं कि योगी एकान्त में रहकर अपने चित्त व आत्मा का संयमन करे, इसके अलावा अन्य किसी प्रकार की कामना का मन में विचार भी न आने दे। इसके साथ-साथ अपने अन्दर से सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने वाले भाव को त्यागकर, अपने अन्तःकरण को ध्यान में लगाने का प्रयास करे।
कैसे करें ध्यान के आसन की तैयारी
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान से पूर्व की तैयारियों में आसन का निर्देशन करते हुए कहते हैं कि योगाभ्यासी साधक को शुद्ध स्थान और समतल भूमि पर सबसे पहले दर्भ अर्थात् घास, मृग की छाल अथवा कम्बल आदि बिछाकर आसन लगाना चाहिए।
इस प्रकार आसन के स्थान व आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था करने के बाद योगाभ्यासी साधक को अपने चित्त और इन्द्रियों को नियंत्रित करते हुए, मन को एकाग्र करके, स्थिर होकर, पीठ, गर्दन व मस्तक को एक सीध में रखते हुए, दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर टिकाकर, अन्तःकरण को शान्त करके, भय रहित होकर, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, मन को संयमित करके, मुझमें अपना चित्त लगाकर, मेरा ध्यान करते हुए मुझमें ही योगयुक्त हो जाएं।
गीता में ध्यान के लिए अभ्यास एवं वैराग्य की बात कही गई है। योगी श्रीकृष्ण ध्यान से पूर्व चंचल मन को नियंत्रित करने की बात करते हुए कहते हैं कि संकल्प करके अपनी सभी कामनाओं व वासनाओं को बिल्कुल त्यागकर, मन से सभी इन्द्रियों को वश में कर, धैर्य युक्त बुद्धि से धीरे-धीरे शान्त होता जाना और मन को आत्मा में स्थिर करके कुछ भी चिन्तन न करना। उपर्युक्त विधि का पालन करते हुए मन जब भी कभी बाहर जाए तो उसे वहां से रोककर आत्मा के ऊपर लगाएं अर्थात् आत्मा के अधीन करने का प्रयास करते रहें। इस पर अर्जुन शंका जताते हुए कहते हैं कि मन तो बहुत ही चंचल, बलवान तथा दृढ़ है। ऐसे मन को नियंत्रित करना तो वायु को नियंत्रण में करने के समान अत्यन्त कठिन है।
तब अर्जुन की शंका का समाधान करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस चंचल मन को नियंत्रित करना अत्यन्त कठिन है, परन्तु फिर भी अभ्यास एवं वैराग्य से इसे नियंत्रण में किया जा सकता है।
ध्यान की विधि
ऋग्वेद से लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा इस बात की पुष्टि की जा चुकी है कि परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय का ध्यान नहीं करना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि परमात्मा का ध्यान कैसे किया जाए? इसका उत्तर हमें योगदर्शन से ही मिलता है। योगदर्शन के समाधिपाद में ईश्वर के स्वरूप और गुणों का वर्णन बहुत सुन्दर तरीक़े से किया गया है। हमें केवल उसी का अनुसरण करना है। ध्यान हेतु किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर आंखों को कोमलता से बन्द करें और तीन बार ओऽम शब्द का उच्चारण करें। इसके बाद तीन बार बाह्य प्राणायाम का अभ्यास करना है। प्राणायाम करने के बाद पूरी सजगता के साथ अपने प्राण को दृष्टा भाव से देखना है। जैसे ही प्राण की गति सामान्य हो जाए, वैसे ही ईश्वर का चिन्तन प्रारम्भ कर देना चाहिए।
ईश्वर का चिन्तन ईश्वर प्रणिधान के सूत्र के साथ आरम्भ करते हुए परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखना है। इसके बाद हमें चिन्तन करना है कि वह ईश्वर सभी प्रकार के क्लेशों, कर्मों, उनके फलों और संस्कारों से रहित और सभी आत्माओं में विशेष है। उस ईश्वर के जितना ज्ञान किसी में भी नहीं है, क्योंकि वह सभी प्रकार के ज्ञान को बीज रूप में जानता है। वह ईश्वर सभी गुरुओं का गुरु है, क्योंकि वह काल की सीमा से परे है। उसका मुख्य और निज नाम ओऽम है और मैं उस ओऽम का उच्चारण उसके अर्थ की भावना के साथ करते हुए अपने सभी कर्मों को उस ईश्वर में समर्पित करता हूं। इसके बाद साधक को ओऽम शब्द का उच्चारण अथवा स्मरण उसके अर्थ की भावना के साथ करना चाहिए। इस प्रकार उस ईश्वर का चिन्तन और ईश्वर प्रणिधान की भावना करने से ईश्वर और जीवात्मा का साक्षात्कार होता है और सभी विघ्नों का भी नाश होता है।
इस विषय में यजुर्वेद भी कहता है; हे कर्म करने वाले प्राणी! ओऽम नाम का स्मरण अर्थात् जप कर। मुण्डक उपनिषद् भी कहता है- यह प्रणव अर्थात् ओऽम शब्द धनुष है, आत्मा बाण है, ईश्वर उस आत्मा का लक्ष्य है। इसलिए प्रमाद को त्यागकर लक्ष्य का भेदन करो। जिस प्रकार तीर अपने लक्ष्य में प्रवेश करता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी उस ब्रह्म अर्थात् ईश्वर में प्रवेश करेगी। महर्षि दयानन्द भी ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में लिखते हैं- सदा ओऽम नाम का जप और उसी के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए। ऐसा करने से साधक का मन एकाग्र, प्रसन्न और ज्ञान को यथावत् प्राप्त कर लेता है, जिससे उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश और ईश्वर भक्ति बढ़ती जाती है।
गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण मोक्ष प्राप्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं कि जब साधक अपनी इन्द्रियों के सभी द्वारों को संयमित करके, मन का हृदय प्रदेश में निरोध करके, अपने प्राण व मन को मस्तिष्क में स्थिर करके योग को धारण करते हुए अथवा योग साधना का आश्रय लेकर, एक अक्षर ॐ रूपी ब्रह्म का व्यावहारिक रूप से स्मरण करते हुए, अपने शरीर को छोड़ता है। अर्थात अपनी देह को त्यागता है। वह परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है।
ध्यान की प्राप्ति
ध्यान स्वतः ही घटने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए हमें स्वयं को इस योग्य बनाना पड़ता है कि यह स्वतः ही घटने वाली प्रक्रिया हमारे साथ भी घट जाए। इसके लिए हमें सबसे पहले ध्यान के वास्तविक स्वरूप को जानना आवश्यक है। ध्यान की सफलता के लिए ध्यान में श्रद्धा, उसका निरन्तर और दीर्घकालीन अभ्यास होना अनिवार्य है।
ध्यान से पूर्व जो जरूरी है
यमों का पालन - जब तक योग साधक के व्यवहार में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन नहीं आ जाता, तब तक ध्यान सम्भव नहीं है। कोई व्यक्ति यह चाहे कि मैं अपने लोभ, क्रोध और मोह के वश में आकर हिंसा, झूठ, चोरी, कामुकता और अनावश्यक विचारों का संग्रह करते हुए ही ध्यान का अभ्यास करता रहूं, तो यह सम्भव नहीं है।
नियमों का पालन - यमों की तरह ही साधक को ध्यानस्थ होने के लिए शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का पालन करना अनिवार्य है।
आसन का अभ्यास - ध्यान हेतु आसन में सिद्धि प्राप्त करना बहुत आवश्यक और अनिवार्य है। बिना आसन की सिद्धि के ध्यान का अभ्यास नहीं किया जा सकता। इसके लिए साधक को किसी भी ध्यानात्मक आसन का अभ्यास करना चाहिए।
प्राणायाम का अभ्यास – योग की प्रमाणिक पुस्तक हठप्रदीपिका कहती है कि जब तक प्राण अनियंत्रित होकर चलता रहता है, तब तक हमारा चित्त भी चलता रहता है। लेकिन जैसे ही हम प्राण को नियंत्रित कर लेते हैं, वैसे ही हमारा चित्त भी नियंत्रण में आ जाता है। योगदर्शन भी प्राणायाम के लाभ का वर्णन करते हुए कहता है कि प्राणायाम करने से मन की धारणा शक्ति का विकास होता है। इस धारणा शक्ति से ही ध्यान का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए ध्यान हेतु प्राणायाम का अभ्यास बहुत अधिक उपयोगी है।
प्रत्याहार का अभ्यास - प्रत्याहार से साधक अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है। जो कि ध्यान के लिए सबसे अधिक आवश्यक है। जब सभी इंद्रियां चित्त का अनुसरण करती हैं, तभी धारणा करना सम्भव है। इसलिए बिना प्रत्याहार के धारणा सम्भव नहीं है। और बिना धारणा के ध्यान सम्भव नहीं है। इसलिए साधक का प्रत्याहार में भी निपुण होना आवश्यक है।