उपलब्धता के साथ गुणवत्ता भी है जरूरी
दीपिका अरोड़ा
जल, जिसे जीवन भी कहा जाता है, किसी वरदान से कम नहीं है। इसके बिना जीने की कल्पना भी असंभव है। भारत, जो विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या का निवास स्थान है, कुल वैश्विक भूजल का एक-चौथाई से अधिक उपयोग करता है। यदि पेयजल की उपलब्धता की बात करें तो वर्तमान में भारत के पास विश्व के मीठे जल संसाधनों का मात्र 4 प्रतिशत मौजूद है। देश की आवश्यकताओं को देखते हुए इसे चुनौतीपूर्ण स्थिति कहा जा सकता है। ‘जल संचय जन भागीदारी पहल’ की शुरुआत पर प्रधानमंत्री भी इसी विषय पर चिंता प्रकट करते नजर आए। घटते भूजल स्तर के मद्देनजर देश के प्रत्येक नागरिक को इसका दुरुपयोग रोकने और पुनर्चक्रण के मंत्र को अपनाने की जरूरत है।
जल संकट कमोबेश समूचे देश को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। देश के अनेक हिस्से जल उपलब्धता से वंचित हैं। बीते दिनों दिल्ली और बेंगलुरु में पानी की भारी किल्लत देखने को मिली। राष्ट्रीय राजधानी के कई क्षेत्र ड्राई जोन घोषित किए गए। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 60 करोड़ भारतीय जल संकट का सामना कर रहे हैं। सुरक्षित जल की अपर्याप्त पहुंच के कारण प्रतिवर्ष लगभग 2 लाख लोग मृत्यु का शिकार हो जाते हैं। यूनिसेफ द्वारा 18 मार्च, 2021 को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 9.14 करोड़ बच्चे जलाभाव की गंभीर स्थिति से जूझ रहे हैं।
पेयजल की बढ़ती कमी में विगत कुछ वर्षों से वर्षा का बदलता प्रतिरूप काफी हद तक जिम्मेदार है। अनियमित एवं कम बारिश तथा बढ़ते तापमान के कारण सूखे जैसे हालात उत्पन्न हो रहे हैं। औद्योगिक व शहरी उपयोग के साथ भारत की 60 प्रतिशत से अधिक कृषि और 85 प्रतिशत पेयजल आपूर्ति भूजल पर निर्भर है। देश की निरंतर बढ़ती जनसंख्या के दृष्टिगत मांग का आपूर्ति पर भारी पड़ना असंतुलन का दायरा कई गुणा बढ़ा देता है। अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के चलते अकारण जल रिसाव, वितरण में असमानता, अकुशल सिंचाई, अत्यधिक दोहन और जल संरक्षण के उपायों की कमी ने भी जल संकट बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
औद्योगिक कचरा, विविध रसायन, सीवेज और घरेलू अपशिष्ट जल स्रोतों में फेंकने अथवा आसपास डंप करने से जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है, जिससे शुद्ध जल की मात्रा घट जाती है। लाखों भारतीयों तक सुरक्षित पेयजल की पहुंच न होने से जलजनित बीमारियों के मामले बढ़ गए हैं। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 163 मिलियन भारतीय सुरक्षित जल से वंचित हैं। 21 प्रतिशत संचारी रोग असुरक्षित जल से जुड़े हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है, जहां लगभग 70 प्रतिशत जल संदूषित है।
जल प्रदूषण और दुरुपयोग का यह सिलसिला यूं ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देश की आधे से अधिक आबादी जल संकट से जूझेगी। डीसीएम श्रीराम और सत्व नॉलेज की मार्च, 2024 में आई रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2050 तक देश के 50 प्रतिशत से अधिक जिलों में पानी की समस्या बढ़ सकती है। इस दौरान प्रति व्यक्ति पानी की मांग में 30 प्रतिशत और उपलब्धता में 15 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, यदि यही स्थिति रही तो 2050 तक देश में मौजूद जल का 40 प्रतिशत हिस्सा समाप्त हो सकता है।
जल संरक्षण के संदर्भ में नियम-कानून बने होने तथा केंद्र-राज्य सरकारों द्वारा जल संरक्षण के प्रति जन जागृति फैलाने के लिए ‘अटल भूजल योजना’, ‘कैच द रैन’ और ‘जल जीवन मिशन’ जैसी अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं। बावजूद इसके यदि हालात न सुधरें, तो स्पष्ट तौर पर न तो लोग इसे गंभीरता से ले रहे हैं और न ही नियम-कानूनों का समुचित क्रियान्वयन संभव हो पा रहा है। भारत का नाम जल संकट के अतिसंवेदनशील माने जाने वाले 37 देशों में सूचीबद्ध होना गहन मंथन का विषय है। जल संरक्षण के लिए आवश्यक है कि नवीन तकनीकों और नीतियों को अपनाते हुए ड्रिप सिंचाई जैसी टिकाऊ कृषि तकनीकों को बढ़ावा दिया जाए।
जैसा कि प्रधानमंत्री ने भी कहा, प्रकृति संरक्षण भारत की सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा रहा है। जल संचय केवल नीतियों तक सीमित न होकर एक पुण्यकर्म भी है, जिसमें उदारता और उत्तरदायित्व दोनों समाहित हैं। दूसरे शब्दों में, जल संरक्षण सामाजिक निष्ठा का भी विषय है, जिसका पालन हमारे पूर्वजों के लिए सर्वोपरि रहा। जल संकट एक स्वास्थ्य संकट है, और प्रत्येक नागरिक के लिए इसे समझना अनिवार्य है। प्रधानमंत्री के कथनानुसार, यदि ‘रिड्यूस’, ‘रियूज़’, ‘रिचार्ज’ और ‘रिसाइकिल’ अपनी दिनचर्या के अभिन्न भाग बना लिए जाएं, तो निस्संदेह हर बूंद सहेजने का यह प्रयास संजीवनी बनकर कितने ही लोगों का जीवन बचा सकता है। इससे बढ़कर परोपकार और क्या हो सकता है!