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आग और राग के महाकवि पूश्किन

12:36 PM Jun 04, 2023 IST
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मास्को से डॉ. इंद्रजीत सिंह

प्रेम, प्रकृति, मनुष्यता और स्वतंत्रता के अपराजेय गायक महाकवि पूश्किन की कविताओं में संवेदना और सृजन का राग है, प्रतिरोध और प्रतिबद्धता की आग है और श्रम की गरिमा के साथ-साथ शोषण रहित समानता तथा स्वतंत्रता से युक्त हसीं समाज का ख्वाब है। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के अनुसार- ‘पूश्किन रूस की धरती पर एक देवदूत की तरह प्रकट हुए… यह देवदूतndash;कवि, लोगों के बर्फ़-जमें दिलों को शब्दों के अंगारों से धधकाने का ही काम करता रहा। पूश्किन ने लिखा :-

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‘देवदूत ओ! उठो! जहां भी मानव का अंतर पाओ,

अपने शब्दों के अंगारे सबके अंदर धधकाओ।’

अलेक्सान्द्र सर्गेयेविच पूश्किन का जन्म 6 जून, 1799 को मॉस्को में हुआ। पूश्किन के पिता सर्गेई ल्वोविच, जार की सेना में एक अधिकारी थे। सेना से त्यागपत्र देकर जमींदार के रूप में जीवन गुजार रहे थे और समय के साथ-साथ उनके आलस्य के कारण आमदनी घटती गई। मां नादेज़्दा का संबंध जमींदार घराने से था। पुश्किन के पूर्वज अफ्रीकी थे। गोरी मां के बावजूद पूश्किन का रंग सांवला था। उनका चेहरा उनके अफ्रीकन पुरखों की याद दिलाता था। इस सांवले रंग के कारण भी पूश्किन को मां का उतना प्यार और स्नेह नहीं मिला। लेकिन पूश्किन की आया उन्हें बहुत प्यार करती थी।

कथा-सम्राट प्रेमचंद की तरह पूश्किन भी गणित विषय में बहुत कमजोर थे। पूश्किन के जीवनीकार हेनरी त्रोएट के अनुसारndash; ‘पूश्किन एक सामान्य विद्यार्थी थे। गणित के सरल सिद्धांत समझ में न आने पर रोने लगते थे। …वे स्कूल किताबों से नहीं बल्कि अपने ड्राइंग रूम से सीखते थे, जहां बड़ेndash;बूढ़े घंटों फ्रेंच में बतियाते थे या नर्स और नानी के कमरे से। और सबसे अधिक पिता के पुस्तकालय से।’ पिता के निजी पुस्तकालय में रूसी और फ्रेंच साहित्य की सैकड़ों पुस्तकें थीं। बचपन से ही साहित्य के प्रति गहरे लगाव के कारण उनके मन में कविता की कलियां खिलने लगीं। धीरे-धीरे वह क्रांतिकारी कवि के रूप में स्थापित होने लगे। वह राजकवि की बजाय राष्ट्रकवि और जनकवि बनना चाहते थे।

वर्ष 1812 में रूस और फ्रांस में युद्ध छिड़ गया। नेपोलियन ने प्रारंभ में रूस के कई इलाकों पर अपनी विजय का परचम लहराया। लेकिन अंतिम रूप से रूस की सेनाओं ने 1813 में विजय हासिल की। पूश्किन ने राष्ट्र प्रेम की कविताएं लिखीं। 15 वर्ष की अवस्था में 1814 में रूस की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘मेसेन्जर’ में उनकी कविता छपी। इस कविता के कारण पूश्किन रूस के प्रसिद्ध कवियों की श्रेणी में आ गए। साल 1815 के प्रारंभ में उनके स्कूल में रूस के सुप्रसिद्ध कवि दर्जेविन की अध्यक्षता में एक भव्य सांस्कृतिक साहित्यिक आयोजन हुआ जिसमें सरकार के मंत्री, सेना के आला अधिकारी, सभी विद्यार्थियों के अभिभावक शामिल हुए। पूश्किन ने ‘तारस्कोndash;सेलो की स्मृतियां’ शीर्षक से कविता सुनकर सभी श्रोताओं को अपना मुरीद बना लिया। रूस के मशहूर कवि दर्जेविन ने उन्हें बहुत सराहा और अपना आशीर्वाद दिया। पूश्किन की कीर्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। जार शासन के राजकवि झुकोवस्की उनसे मिलने आए। सरकार की इच्छाओं के अनुरूप उन्हें कविता लिखने के कारण साम्राज्ञी द्वारा सोने की चेन वाली घड़ी भेंट की गई।

किशोरावस्था में उन्होंने शासन-प्रशासन के समर्थन में कविताएं लिखी लेकिन जैसे-जैसे उनकी सोच परिपक्व हुई, सच्चे कवि-धर्म की अनुभूति हुई और उन्होंने स्वतंत्रता, समानता, प्रेम, मनुष्यता के पक्ष में और अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ कविताएं लिखनी प्रारंभ की। सरकार और पुलिस की नज़रों में वह खटकने लगे। आखिरकार सम्राट ने उन्हें शहर से निर्वासित कर केवल गांव में ही रहने का हुक्म दिया। मॉस्को और सेंट पीटर्सबर्ग आना उनके लिए मुमकिन नहीं था। इन्हीं दोनों शहरों से उन्हें बेहद लगाव था। यह निर्वासन भी उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ। इसी दौरान उन्हें प्रकृति, ग्रामीण जनता और लोक जीवन से जुड़ने का सुनहरा अवसर मिला। प्रकृति पर आधारित उन्होंने अनेक मर्मस्पर्शी कविताएं लिखी। ‘सागर से’ शीर्षक की मशहूर कविता उन्होंने निर्वासन के दौरान 1824 में लिखी जिसमें वह समुद्र की सुंदरता और स्वतंत्रता का बखान करते हैं। सागर जैसी आजादी कवि के साथ-साथ सभी मनुष्यों की चाहत है :-

‘तेरा बिम्ब हृदय पर उसके अंकित था

और आत्मा उसने तेरी थी पाई

तेरी तरह प्रबल, वह बंधन मुक्त रहा

तेरे जैसी मिली खिन्नता, गहराई।’

पूश्किन की इंकलाब प्रधान कविताओं ने रूस वासियों के दिलों में दासता से मुक्ति की चाह और स्वतंत्रता की राह दिखायी। इसीलिए रूस के सुप्रसिद्ध कथाकार गोगोल ने पूश्किन को ‘रूस का राष्ट्रकवि’ कहा।

दिसंबर, 1825 में सम्राट अलेक्सान्द्र प्रथम की मृत्यु हो गई। नये सम्राट का ऐलान होने तक कुछ सैनिकों ने और कुछ किसानों ने विद्रोह कर दिया। जार निकोलस नये सम्राट बने। उन्होंने विद्रोह को कुचल दिया। पूश्किन ने ’14 दिसंबर’ शीर्षक की कविता लिखी जो विद्रोहियों का समर्थन करती थी। पूश्किन अपने निर्वासन से दुखी थे और गांव से सेंट पीटर्सबर्ग लौटना चाहते थे। उन्होंने अपने मित्र और राजकवि झुकोवस्की को पत्र लिखा कि वह सम्राट से कहकर उनका निर्वासन समाप्त कराएं। नये सम्राट ने पूश्किन को 1826 में अपने दरबार में तलब किया। नये सम्राट ने पूश्किन के प्रति नर्म रवैया अपनाया। सम्राट और पूश्किन के बीच संवाद हुआ। सम्राट पूश्किन की साफ़गोई से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें शहर में रहने की आजादी इस शर्त पर दी कि वह सरकार विरोधी कविताएं नहीं लिखेंगे। सम्राट खुद उनकी कविताओं की जांच करेंगे। सेंसर का अधिकार सम्राट ने खुद अपने पास रखा।

पूश्किन की उम्र तीस वर्ष की हो चुकी थी। प्रेम और फ्लर्ट कई स्त्रियों के साथ कर चुके थे और कर भी रहे थे। जुआ, शराब और अय्याशी और उधार मांगने जैसे दुर्गुणों के कारण लोग उनकी आलोचना भी करते थे। पूश्किन जीवन में स्थायित्व के लिए बेचैन थे। नतालिया नाम की अपूर्व सुंदरी के साथ विवाह हर कीमत पर करना चाहते थे। कवि के रूप में पूश्किन की प्रतिष्ठा पूरे देश में थी लेकिन आर्थिक हालात ठीक नहीं थे। नतालिया की मां पूश्किन को ज्यादा तरजीह नहीं देती थी। आखिरकार फरवरी, 1831 को पूश्किन का विवाह नतालिया से सम्पन्न हुआ। उन्होंने अपनी जायदाद को गिरवी रखकर पैसे हासिल किए और अपनी सास के दबाव में दुल्हन की पोशाक के लिए एक बड़ी रकम उन्हें दी। नतालिया को बतौर जीवन साथी पाकर पूश्किन बहुत प्रसन्न थे।

पूश्किन ज्योतिष में भी विश्वास करते थे। एक जर्मन महिला ज्योतिषी ने उन्हें बताया कि उन्हें निर्वासन झेलना पड़ेगा, उनका डूबा हुआ पैसा वापस मिलेगा। ये बातें सच निकलीं लेकिन उसने यह भी कहा कि 37 साल की उम्र में उन्हें एक आदमी से जान का खतरा है। सचमुच उस ज्योतिषी की अधिकांश बातें सच साबित हुईं। सम्राट के दरबार में दांतेज नाम का सेना का बड़ा अधिकारी था। पूश्किन और उनकी पत्नी नतालिया को सम्राट के दरबार में नृत्य-उत्सव के लिए आमंत्रित किया जाता था। नतालिया अपने सौन्दर्य और नृत्य कौशल के लिए पूरे शहर में बहुत प्रसिद्ध थी। इसी नृत्य उत्सव के दौरान दांतेज नतालिया के सौन्दर्य पर मोहित हो गए। नतालिया को अक्सर अपने साथ नृत्य के लिए प्रेरित करते। नतालिया भी दांतेज के रूप और शारीरिक सौष्ठव से बहुत प्रभावित थी। पूश्किन को दांतेज के साथ नतालिया का झुकाव हरगिज पसंद नहीं था। बात बढ़ते-बढ़ते द्वंद्व युद्ध (ड्वेल) तक जा पहुंची। इस द्वंद्व युद्ध में पूश्किन को गोली लगी और 29 जनवरी, 1837 में पूश्किन इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए। कुल 38 साल तक जिंदा रहने वाले विश्व के इस महान साहित्यकार ने अपनी कविताओं, कहानियों और नाटकों के जरिये रूसवासियों के दिलों में जो जगह बनाई वह आज भी कायम है। पूश्किन ने जहां अपनी कविताओं में क्रांति का बिगुल बजाया, वहीं प्रकृति, प्रेम, मनुष्यता और इंसानियत से लबरेज़ विविध पहलुओं पर कविताओं ने उन्हें कालजयी कवि बनाया। उन्होंने अपनी कहानियों में समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की। पूश्किन गद्य साहित्य के भारतीय अध्येता ए चारूमति रामदास के अनुसार ‘पूश्किन को अनेक महान उपलब्धियों का श्रेय जाता है। वह राष्ट्रकवि थे, आधुनिक रूसी भाषा के प्रणेता थे, छायावादी होने के बावजूद यथार्थवाद के प्रवर्तक थे। …उनके लघु उपन्यास ‘कप्तान की बेटी’ में किसानों के विद्रोह का बड़ा प्रभावशाली वर्णन है और रूसी समाज की, विशेषकर स्त्री समाज की अंदरूनी सच्चाइयों का विलक्षण दस्तावेज़ है।’ पूश्किन जितने क्रांतिकारी कविताओं के लिए याद किए जाते हैं उतने ही वे प्रेम कविताओं के लिए जाने जाते हैं। पूश्किन की कविताओं में जितनी आग है उतना राग भी।’ ‘चादायेव के नाम’, ‘कवि से’ आदि कविताओं में आग और लावा मौजूद है वहीं ‘क्या रखा है मेरे नाम में तुम्हारे लिए’ और ‘के’ के लिए’ आदि कविताओं में राग के रंग मौजूद हैं। पूश्किन कभी भी पुरस्कारों के लालच में नहीं पड़े और न ही तथाकथित आलोचकों से घबराये। रूसी भाषा और साहित्य के अध्येता प्रोफेसर वरयाम सिंह द्वारा पूश्किन की इस कालजयी कविता के हिंदी अनुवाद से, पूश्किन की महान शख्सियत का, उनके नजरिये का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है :-

‘डरो नहीं अपमानों से,

लोभ न करो सम्मान पुरस्कार का

तटस्थ रहो नींद और प्रशंसा के प्रति,

और न ही प्रतिवाद करो किसी मूर्ख की बात का।’

रूस के प्रसिद्ध कवि अलेक्सान्द्र त्वार्दोरवस्की ने पूश्किन की कालातीत कविताओं के बारे में बहुत उचित टिप्पणी की हैndash;’वह अपने समय में अपने समकालीनों और दूसरी पीढ़ी के साथ भी जीते रहे, हमारे साथ भी जी रहे हैं और उनके साथ भी जियेंगे, जो हमारा स्थान लेंगे।’ पूश्किन साहब की द्वंद्व युद्ध के कारण 38 वर्ष की अल्पायु में 1937 में मृत्यु हो गई लेकिन वह अपनी कालजयी कविताओं, कहानियों और नाटकों के जरिये आज भी दुनिया के साहित्य प्रेमियों के दिलों में जिंदा हैं। जार शासकों के नाम समय के साथ धूमिल पड़ते गए लेकिन कवि पूश्किन की कविताओं की चमक, दमक, धमक और धार आज दो शताब्दी बाद भी बरकरार है। महाकवि पूश्किन की निम्नलिखित कालजयी पंक्तियां उनकी महानता और सच्चाई को बयां कर रही हैं :-

‘नहीं पूर्णत: कभी मरूंगा, मेरी पावन वीणा में

जीवित रहे आत्मा मेरी, तन, मिट्टी सड़ जाने पर

जब तक होगा इस दुनिया में, कहीं एक कवि या शायर

तब तक मेरी ख्याति रहेगी, इस धरती पर अजर-अमर।’

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