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पुरबिये

06:37 AM Jun 23, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी
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(स्व.) गुरमेल मडाहड़

चाची का एक पुत्र विदेश गया हुआ है। वह सारा दिन उसकी ही बातें खत्म नहीं होने देती। कई बार तो मुझे खीझ-सी उठने लगती है जब वह मोहल्ले की स्त्रियों को इकट्ठा करके गली में बैठ जाती है। उसे कोई चिन्ता ही नहीं होती कि गली में बिठाये उसके झुंड के कारण वहां से गुज़रने वालों को कितनी दिक्कत होती है।
छुट्टी का दिन हो या मेरा वक्त न कटता हो तो मैं चाची के पास जा बैठता हूं और कहता हूं, ‘सुना चाची, भाई की कोई चिट्ठी आई?’
‘हां, आई है पुत्तर... कल ही साथ दो हज़ार रुपये भी आए हैं। मेरे लिए गर्म शाॅल और निक्के के लिए बनियान भेजी है।’ फिर वह झट से अंदर जाती है और शाॅल और बनियान लाकर मेरे सामने रख देती है।
‘हां चाची, कपड़े तो बढ़िया हैं।’ मैं अंगुलियों से कपड़े छूकर देखता हूं और फिर वापस कर देता हूं।
‘शाॅल देख पुत्तर, कितनी गर्म है और बनियान... निक्का कहता था, असली नायलोन की है।’
‘हां चाची, शाॅल पर तो तू बेशक दाल रखकर गर्म कर लिया कर।’ मैं धीरे से व्यंग्य में कहता हूं।
‘जा रे परे... तू तो मुझे हर समय अपनी साली बनाये रखता है।’ वह प्यार भरे गुस्से में मुझे डांटती है। इस प्रकार उसके पास बैठकर मेरा हंसते-खेलते काफी समय बीत जाता है या फिर मैं अपने घर पर ही बैठा उसकी गप्पें सुन-सुनकर समय काटता रहता हूं। जब वह कभी स्त्रियों के बीच गली में बैठी ऊंची आवाज़ में कह रही होती है, ‘बड़े की चिट्ठी आई है। कहता है, मैंने कार खरीद ली है और जल्दी ही एक बंगला खरीदने वाला हूं।’
‘ठीक है बेबे, काम करने वाले के लिए कार और बंगला खरीदना क्या मुश्किल है।’ कोई स्त्री उसकी बात का समर्थन करती है।
‘तनख्वाह कौन-सी कम है मेरे पुत्तर की। अभी दो महीने ही नहीं हुए जब एक हज़ार भेजा था, कल दो हज़ार और आ गया। हमें तो तार दिया उसने।’
मैं खिड़की में से देखता हूं, चाची अब ऐसे मूड में है कि बातों के साथ-साथ उसके हाथों के एक्शन भी देखने योग्य हैं।
‘तुमने क्या कम पैसा खर्च किया उसको पढ़ाने-लिखाने पर... और फिर बाहर भेजने पर भी क्या कोई कम खर्चा आता है?’अब कोई अन्य औरत बोल उठती है।
‘पढ़ाई के अलावा पासपोर्ट बनाने पर भी तो ज़मीन तक गिरवी रखनी पड़ी थी।’ अब चाची कुछ गंभीर हो गई थी।
‘बेटा लायक हो तो बेबे ज़मीन-वमीन सारी छुड़वाई जा सकती है।’
‘लायकपने की तो बात ही क्या है... बड़ी गोरियां पीछे-पीछे फिरती हैं उसके साथ शादी रचाने को, पर वह कहता है कि जब तक मेरी मां नहीं मानती, मैं विवाह नहीं करवाऊंगा।’
‘विवाह तो चाची बेटे का अब तुझे कर ही देना चाहिए। उम्र भी तो दिनोंदिन घट रही है।’ मानो नाम की एक औरत अपने दुपट्टे को संभालती हुई कहती है।
‘वो तो करेंगे ही, आ रहा है अगले महीने। लड़की देख रखी है। प्रोफेसर लगी हुई है।’
आज वह घर में सफेदी करवा रही है। दीवारों पर जहां-जहां से पलस्तर उखड़ा हुआ है, वहां फिर से पलस्तर कर दिया गया है। घर की खिड़कियों के टूटे और पुराने शीशे बदल दिए गए हैं।
‘क्या बात है मां जी, घर को बड़ा सजा-संवार रहे हो?’ जब कोई स्त्री गली में से गुजरती हुई पूछ बैठती है तो उसे रोककर चाची बताती है, ‘बड़े बेटे ने आना है न। उसका विवाह भी तो करना है। घर तो संवारना ही पड़ेगा। और फिर अब वह पहले जैसा थोड़े रह गया है। वहां तो वह बंगले में रहता है, कार की सवारी करता है और गद्देदार... क्या कहते हैं उसे?’ चाची माथे पर हाथ मारकर बड़बड़ाती है, ‘कमबख्त अब तो याददाश्त ही कम होती जा रही है। बूढ़ी हो गई हूं पुत्तर...’ और याद करने के लिए वह दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डालती है। अब मुझे उसकी दशा पर तरस-सा आने लगता है।
‘स्पंज चाची।’ मैं अंदर से ही बोलकर बताता हूं।
‘हां-हां, सपंज...सपंज के गद्दे वाले बिस्तर पर सोता है। फिर हमें भी तो उसका कुछ ध्यान रखना चाहिए न।’
‘क्यों नहीं बेबे...’ कहकर वह स्त्री आगे बढ़ जाती है। चाची पीछे से आवाज़ लगाकर कहती है, ‘रुक जा पुत्तर, चाय पीकर चली जाना।’ परंतु वह स्त्री दूर चली गई होती है।
आखि़र, जिस बेटे का इंतज़ार था, वह आ ही गया। मां अच्छे से अच्छा खाना बनाती है। निक्का घर के पालतू मुर्गों में से रोज़ एक मुर्गा झटक लेता है। चाचा ने पहले ही कहीं से पांच-सात रम की बोतलों का प्रबंध कर रखा है। कहने का मतलब सारे का सारा परिवार खुशी में डूबा उसके आगे-पीछे चक्कर काटता रहता है। मैं भी उससे विदेश के बारे में जानकारी लेने के लिए उसके पास बैठ जाता हूं। पर चाची मुझे अपने काम की कोई बात उससे करने का अवसर ही नहीं देती। वह हर समय उस पर विवाह कर लेने के लिए ज़ोर डालती रहती है। लेकिन बेटा है कि ‘हां’ नहीं कर रहा।
फिर एक दिन मां के नित्य के क्लेश से तंग आकर वह कहता है, ‘विवाह तो मैंने वहां कर लिया है।’
यह सुनते ही चाची सावन की घटा की तरह उस पर बरस पड़ती है, ‘रे तेरा बेड़ा गरक हो... सिख का पुत्तर होकर तूने कटे बालों वाली मेम से विवाह रचा लिया? क्या ज़रूरत थी तुझे वहां शादी करने की? यहां की लड़कियां क्या मेमों से कम हैं? तू कहकर तो देखता, मैं एक से एक बढ़कर लड़की तेरे आगे हाज़िर कर देती।’
‘मेरी बात तो सुन मां... विवाह मैंने कोई शौक से नहीं करवाया।’
‘और फिर क्या मुझे रुलाने के लिए करवाया है?’
‘केवल इसलिए कि उसकी और अपनी कमाई से इस घर की गरीबी के दाग धो सकूं।’
‘रे तू क्या खाक धोएगा हमारी गरीबी को... तूने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा...।’
चाची आपे से बाहर हो गई है। उसका गुस्सा ठंडा करने वाला घर में कोई नहीं है। चाचा को उसके अफसर ने घर बुला रखा है, निक्का कहीं बाहर गया हुआ है। मां की लगातार चल रही बड़बड़ से तंग आकर वह मुझे कहता है, ‘चल यार, कहीं सैर कर आएं।’ मैं झट से उसके साथ हो लेता हूं।
‘अपने लोगों का वहां क्या हाल है?’ मैं घर से निकलते ही उससे प्रश्न कर देता हूं। मेरी बात सुनकर वह गंभीर हो जाता है और किसी चिन्ता में डूबा-सा मेरे साथ-साथ चलता रहता है। हम गली का मोड़ काटकर दूसरी गली में पहुंच जाते हैं। यहां आकर वह एकाएक रुक जाता है।
‘ये कौन हैं?’ उसका संकेत एक छोटे-से कमरे की ओर है जिसमें एक मिट्टी के तेल का दीया टिमटिमा रहा है और उसके प्रकाश में दिखाई दे रहे हैं कोई छह-सात आदमी जो फर्श पर बिस्तर बिछाये बैठे हैं और बाहर ओसारे में दो आदमी मोटी-मोटी रोटियां सेंक रहे हैं।
‘पुरबिये।’ मैं उत्तर देता हूं, ‘काम-धंधे के लिए इधर आए हुए हैं। हम इन्हें भइये कहते हैं।’
‘बस इनकी तरह ही हमारा हाल उधर है।’ कहकर वह खामोश हो जाता है।

अनुवाद : सुभाष नीरव

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