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जन जागरूकता रोकेगी चुनावी स्तर में गिरावट

08:00 AM May 08, 2024 IST
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विश्वनाथ सचदेव

वे तीनों पढ़े-लिखे हैं। कहना चाहिए उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। उनमें से दो पत्रकार हैं और तीसरा एक बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन में उच्च अधिकारी। इन तीनों में हो रही बातचीत देश में चल रहे चुनाव के बारे में थी और तीनों इस बात पर चिंता प्रकट कर रहे थे कि दुनिया का सबसे बड़ा जनतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले देश में चुनाव का स्तर इतना नीचा क्यों होता जा रहा है।
देश में मतदान का तीसरा दौर पूरा हो चुका है। बाकी के चार दौर भी शीघ्र ही समाप्त हो जाएंगे। चार जून को मतदान का परिणाम भी सामने आ जायेगा। तब मतदाता तय कर लेगा कि किसको सत्ता में बिठाना है और किसे विपक्ष की भूमिका देनी है। चुनाव जनतंत्र का उत्सव ही नहीं होते, जनतंत्र की प्राणवायु भी होते हैं। और उन तीन जागरूक नागरिकों की चिंता भी इसी बात को लेकर थी कि देश में चुनाव प्रचार का घटता स्तर इस प्राणवायु में ज़हर घोल रहा था। ज़हर घोलने जैसे शब्द कुछ कठोर लग सकते हैं, लेकिन चुनाव-प्रक्रिया के आगे बढ़ने के साथ-साथ जिस तरह चुनाव प्रचार की भाषा का स्तर गिरता जा रहा है, उसे देखकर देश के बुद्धिजीवियों के आकलन को अनदेखा करना भी ग़लत होगा। सही यह भी है कि आम मतदाता भी इस गिरते स्तर से स्वयं को कुछ ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
भाजपा में चुनाव प्रचार की प्रक्रिया बहुत पहले शुरू हो गई थी। इसकी तुलना में विपक्ष बहुत पीछे था। कारण कुछ भी रहे हों, विपक्ष की यह स्थिति भाजपा को अति विश्वास की तरफ ले जा रही थी। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा के प्रचार-महारथी बड़े विश्वास के साथ ‘अब की बार चार सौ पार’ का नारा लगा-लगवा रहे थे।
यह नारा तो अब भी चुनावी-सभाओं में सुनाई दे जाता है, पर आवाज में एक अविश्वास भी झलकने लगा है। जिन तीन बुद्धिजीवियों की बात प्रारंभ में की गई है, उनका यह भी मानना है कि समूचे चुनाव प्रचार में अब एक अंतर्धारा भी प्रवाहित हो रही है। और यह ‘तथ्य’ सत्तारूढ़ पक्ष के नेतृत्व को भी पता लग रहा है। शायद यही कारण है कि उसके चुनावी सिपहसालार प्रचार के पुराने हथियारों को उठाने की आवश्यकता महसूस करते लग रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री की भाव-भंगिमा और शब्दावली भी इसी ओर इशारा कर रही है। फिर से ‘शहजादा’ शब्द उन्हें ज़रूरी लगने लगा है। इस बार कांग्रेस भी कुछ ऐसी शब्दावली काम में लेने की रणनीति अपना रही है। कांग्रेस की एक नेता प्रियंका गांधी ने प्रधानमंत्री के शहजादा-वार के जवाब में ‘शहंशाह’ शब्द को तीर बनाया है।
शहजादा और शहंशाह के इस मुकाबले में चुनाव के सही मुद्दे उपेक्षित होते लग रहे हैं। यही नहीं, भाजपा के नेतृत्व द्वारा वर्षों पुरानी बातों को फिर से सामने लाना भी इसी बात का संकेत है कि सत्तारूढ़ दल को अपने किये पर उतना भरोसा नहीं लग रहा, जितना पिछली सरकारों के अनकिये का लाभ मिलने पर है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अल्पसंख्यकों का ‘पहला अधिकार’ वाला अठारह साल पहले वाला बयान प्रधानमंत्री मोदी को अब फिर उपयोगी लग रहा है। इसी तरह ‘तुष्टीकरण’ वाली बात भी फिर जोर-शोर से उठायी जा रही है। राम मंदिर के नाम पर कांग्रेस के नेतृत्व को घेरने की कोशिश भी फिर से शुरू हो गयी है। विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस को, राम विरोधी बताकर एक बार फिर हिंदुत्व को हथियार बनाने की नीति का पालन हो रहा है। कुछ बीजेपी समर्थक तो यह भी कह रहे हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कार्य अब पूरा होता तो कुछ अधिक चुनावी लाभ मिलता!
देश की सारी चुनावी-राजनीति इसी लाभ को केंद्र बनाकर चल रही है। हमारे राजनेता यह भूल रहे हैं कि राजनीति सत्ता के लिए नहीं सेवा के लिए होनी चाहिए। होना तो यह चाहिए था कि सत्तारूढ़ दल अपने दस साल के कार्यकाल का हवाला देकर फिर से मतदाता का समर्थन मांगता, पर हो कुछ और ही रहा है। हवाला इस बात का दिया जा रहा है कि पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नीतियों के परिणामस्वरूप ही आज के प्रधानमंत्री को काम करने में दिक्कत हो रही है। चुनाव प्रचार के स्तर का लगातार गिरना भी यही दर्शाता है कि हमारी आज की राजनीति सही मुद्दों को अनदेखा कर रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, बेरोज़गारी जैसे ज़रूरी मुद्दों की जगह हमारी राजनीति सांप्रदायिकता का सहारा लेने के लिए जैसे बाध्य हो रही है। संप्रदाय विशेष को ‘घुसपैठिए’ और ‘बच्चे पैदा करने वाली मशीन’ बताने वाले एक घटिया राजनीति का उदाहरण ही प्रस्तुत कर रहे हैं। बहुसंख्यकों की संपत्ति को अल्पसंख्यकों को बांटने की ‘साजिशों’ की बात करना भी हमारी राजनीति के हल्केपन को ही उजागर करता है।
बहरहाल, यहीं इस बात को भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि भाजपा के चार सौ पार वाले नारे ने अल्पसंख्यकों और वंचित वर्ग के मन में एक डर भी पैदा कर दिया है। उन्हें लग रहा है कि लोकसभा में चार सौ से अधिक का बहुमत पाकर भाजपा संविधान को बदलने की स्थिति में आ सकती है। यह सही है कि भाजपा का शीर्ष-नेतृत्व बार-बार इस बात को दुहरा रहा है कि संविधान नहीं बदला जायेगा, और न ही पिछड़ों के अधिकार छीने जाएंगे, लेकिन भाजपा के ही कई नेता इस आशय की बात करते रहे हैं और अब भी कर रहे हैं। ऐसे में मतदाता का शंकालु होना स्वाभाविक है।
प्रधानमंत्री समेत अन्य नेताओं के चुनाव प्रचार में आ रही गिरावट भी चिंता का विषय होनी चाहिए। यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है कि चुनाव आयोग के समक्ष इस गिरते स्तर की शिकायतें लगातार पहुंच रही हैं। यह पहली बार है जब चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री के खिलाफ मिली ऐसी शिकायत को लेकर प्रधानमंत्री के दल के अध्यक्ष को आगाह किया है। ऐसी कार्रवाई कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के खिलाफ भी हुई है। यह भले ही एक प्रकार का संतुलन बनाने की कोशिश हो, पर निश्चित रूप से यह चिंता की बात है कि हमारी राजनीति का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। सारे प्रावधानों के बावजूद हमारे राजनेता घटिया भाषा और घटिया भावों के सहारे राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे। विडंबना यह भी है कि ऐसे घटिया आचरण को रोक पाने में संबंधित एजेंसियां विफल सिद्ध हो रही हैं। हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ कार्रवाई की शिकायत पर चुनाव आयोग ने इन दोनों से पूछताछ के बजाय इनके दलों के अध्यक्षों को पत्र लिखा!
चुनाव प्रचार का यह हल्का स्तर हमारे मीडिया की करनी पर भी सवाल उठाता है। होना तो यह चाहिए था कि ऐसे आचरण की आलोचना हमारा मीडिया करता, पर हो यह रहा है कि मीडिया ऐसी बातों को प्रचारित करने में मददगार सिद्ध हो रहा है! इस घटिया राजनीति का विरोध होना ही चाहिए। और यह विरोध जागरूक मतदाता को ही करना है। मतदाता की जागरूकता जनतंत्र की सफलता-सार्थकता की पहली शर्त है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुंबई के तीन बुद्धिजीवी जिस अंतर्धारा की बात कर रहे थे उसके मूल में यह जागरूकता प्रवाहित हो रही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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