कोचिंग सेंटरों की मनमानी से करें बच्चों का बचाव
दीपिका अरोड़ा
मनमानी फ़ीस वसूलने वाले बेलगाम कोचिंग संस्थानों ने जैसे शिक्षा व्यवस्था के मायने ही बदलकर रख दिए हैं। इसी के मद्देनजर, बीते दिनों केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा दिशानिर्देश जारी किए गए। कोचिंग सेंटर विनियमन, 2024 के लिए प्रस्तावित दिशा-निर्देशों के अनुसार, कोचिंग संस्थानों को भ्रामक वादों अथवा रैंक की गारंटी नहीं देनी चाहिए। वे 16 वर्ष से कम आयु के छात्रों को भी नामांकित नहीं करेंगे। यह भी कि छात्र द्वारा कोचिंग छोड़ने पर संस्थानों को उसी अनुपात में पैसा वापस करना होगा। शिक्षकों की योग्यता, नियुक्ति तथा फ़ीस संरचना प्रक्रिया पारदर्शी करने सहित छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मदद उपलब्ध कराने की बात भी कही गई। वहीं नियमों के उल्लंघन पर जुर्माना लगाने के भी प्रावधान हैं।
कामयाबी की होड़, संस्थानों के दावे
दरअसल, लगातार बढ़ती नंबरों की होड़ ने हमारे शैक्षणिक ढांचे को तहस-नहस कर डाला है। ज्ञान प्राप्त करने की सहज-सरल व स्वाभाविक प्रक्रिया अब स्कूल-कॉलेजों के दायरे तक सीमित नहीं रही बल्कि प्रतिस्पर्धा के चलते कोचिंग संस्थानों तक पहुंच चुकी है। कई मामलों में तो इसकी शुरुआत 3-4 वर्ष की अबोध आयु से होने लगी है। हाई स्कूल के बाद नीट, आईआईटी-जेईई, क्लैट, सीए, कैट जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में तो आकर्षक विज्ञापनों के ज़रिये सफलता दिलाने के दावे किये जाते हैं। कई संस्थानों द्वारा रैंक की गारंटी देना आम बात है।
असल शिक्षा की जगह ‘टिप्स’
देखा जाए तो अधिकतर कोचिंग संस्थानों का ध्येय वास्तविक ज्ञान देने की बजाय केवल परीक्षा में सफल होने के तथ्यों-तरीकों-रणनीतियों पर ही केन्द्रित होता हैं। एक ओर ये कोचिंग सेंटर जहां शिक्षा के मूल मकसद को नष्ट करते हैं, वहीं डमी स्कूलों में डालकर स्कूलों पर से विद्यार्थियों का भरोसा समाप्त करने का कार्य भी करते हैं। एक प्रकार से ये कोचिंग केंद्र नवाचार, वैज्ञानिक रुझान, विचार की स्वतंत्रता के बजाय युवाओं को भीड़तंत्र का हिस्सा बना रहे हैं। यह आपाधापी छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति, अवसाद व तनाव को जन्म दे रही है।
समानांतर व्यवस्था से उपजा तनाव
एक समय रहा, जब छात्र बिना कोचिंग ही मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि कठिन प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण कर सकते थे किंतु आजकल कोटा, जयपुर, दिल्ली जैसे शहरों में पैठ बनाते कोचिंग संस्थान स्पष्ट आभास दिलाते हैं कि उनके रूप में एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था क़ायम हो चुकी है, जिसमें प्रवेश पाए बिना लक्ष्य प्राप्त कभी नहीं हो सकता है। अतिरिक्त दबाव से उपजता तनाव शिक्षा नगरी के रूप में चर्चित राजस्थान के एक शहर को ‘सुसाइड नगर’ की पहचान दे चुका है। सरकारों की लीपापोती के बावजूद हताश छात्र-छात्राओं द्वारा कई बार अतिवादी कम उठा लेने संबंधी समाचार आते हैं। ऐसे में नई शिक्षा नीति लागू करते समय कोचिंग संस्कृति पर विराम लगाने की बात महज़ क़ाग़ज़ी बन कर ही रह गई।
व्यवस्था की खामी
इस तेजी से फलती-फूलती कोचिंग संस्कृति के संवर्द्धन में आख़िर किसे ज़िम्मेदार मानें; अतिव्यस्त अभिभावकों को, जिनके पास बच्चों को खुद पढ़ाने के लिए समय नहीं या फिर महंगे निजी शिक्षण संस्थानों को, जिनमें अंग्रेज़ी पर पकड़ बनाने की चाहत में पैरेंट्स बच्चों को पढ़ाते हैं। कोचिंग अभिभावकों की विवशता बन जाती है। अथवा इसके उत्तरदायी ऐसे सरकारी विद्यालय हैं, जो शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति करते नज़र आते हैं? ज़ाहिरा तौर पर हमारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार की गुंजाइश है।
इतनी आसान नहीं राह
हालिया दिशानिर्देशों को लेकर अभिभावकों में चर्चा है। निःसंदेह, मानसिक परिपक्वता छात्र द्वारा सही निर्णय लेने में सहायक सिद्ध होगी किंतु तथ्य यह भी है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने की तैयारी 16 वर्ष से पूर्व ही आरम्भ हो चुकी होती है। कोचिंग संस्कृति पर लगाम लगाना निश्चय ही व्यापक विचार-विमर्श का विषय है किंतु करोड़ों का उद्योग बन चुकी इस कोचिंग संस्कृति का प्रारूप बदल पाना इतना सरल नहीं। मात्र दिशानिर्देश जारी होने से क्या कोचिंग संस्थान 16 वर्ष से कम आयु के छात्रों को प्रवेश देना छोड़ देंगे अथवा भ्रामक दावों से बाज़ आ जाएंगे? यूं भी 16 वर्ष से कम आयु के किसी छात्र को कोचिंग की आवश्यकता होने पर प्रवेश से रोकना क्या उचित होगा? देश में कोचिंग संस्कृति ने जिस प्रकार व्यावसायिक रूप धारण कर लिया है, उसे देखते हुए कोचिंग संस्थानों का नियमन करना आवश्यक तो है किंतु इससे भी अधिक जरूरी है, शिक्षा की गुणवत्ता पर पुनर्विचार करना। आख़िर, क्यों हमारा स्कूली पाठ्यक्रम प्रतियोगी परीक्षाओं की कसौटी पर ख़रा नहीं उतर पा रहा? यदि नीति नियंता स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति पूर्ण रूप से सचेत होंगे तो बहुत संभव है कि प्रतिभाओं को कोचिंग संस्थानों की शरण ही न लेनी पड़े।