For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

खाक होती संपदा

06:17 AM May 21, 2024 IST
खाक होती संपदा
Advertisement

अभी उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग के किस्से खत्म नहीं हुए थे कि हिमाचल के जंगलों में लगी आग से हजारों हेक्टेयर वन संपदा के खाक होने के समाचार आने लगे हैं। ऐसे वक्त में जब देश के विभिन्न इलाकों में रिकॉर्ड तापमान वृद्धि से लोग हलकान हैं, सुलगते जंगल हमारे संकट को बढ़ाने वाले ही हैं। दावानल में सिर्फ जंगल में पेड़ ही नहीं जलते, तमाम तरह की जैविक विविधता, जंगली जानवर, कीट-पतंगे व पक्षी भी राख होते हैं। यह हमारे पर्यावरण के लिये बेहद घातक स्थिति है। जो निस्संदेह हमारे पारिस्थितिकीय संतुलन पर घातक प्रभाव भी डालती है। हिमाचल के कई इलाकों में लगी आग को लेकर कहा जा रहा है कि अग्निशमन दल के न पहुंच पाने और संसाधनों के अभाव में वनकर्मी झाड़ियों का झाड़ू बनाकर ग्रामीणों के सहयोग से आग को बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। यह विडंबना है कि विदेशों में जंगल की आग बुझाने के लिये हवाई जहाजों , हेलीकॉप्टरों तथा ड्रोन के जरिये रासायनिक पदार्थ व पानी का छिड़काव किया जाता है। वहीं भारत में ऐसे प्रयास न के बराबर नजर आते हैं। उत्तराखंड में लगी आग के बाद आईआईटी रुड़की की मदद से कृत्रिम बारिश कराने के प्रयासों की चर्चा भी हो रही थी। विडंबना यही है हमारा तंत्र आग लगने के बाद कुंआ खोदने की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है। ज्यादातर मामलों में अप्रैल व मई में आग लगने की घटनाओं के मूल में उच्च तापमान वजह बतायी जाती है। लेकिन हर आग लगने की घटना में मानवीय हस्तक्षेप ही होता है। जिसमें इंसान के संकीर्ण स्वार्थ भी निहित होते हैं, तो आपराधिक लापरवाही भी। कभी कहा जाता था कि लकड़ी के ठेकेदार कुछ वनकर्मियों की मिलीभगत से इस तरह की स्थितियां पैदा करते हैं ताकि लकड़ी चोरी की वास्तविकता पर पर्दा डाला जा सके। बहरहाल, हर वर्ष के अग्निकांडों में हजारों हेक्टेयर वन संपदा का यूं तबाह होना एक मानवीय संकट का ही पर्याय है।
यह एक हकीकत है कि जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के लिये पर्याप्त संसाधन वन व अग्निशमन विभाग के पास नहीं होते। इनका बजट सीमित होने के कारण भी आग बुझाने के आधुनिक साधन नहीं जुटाए जा सकते। वनों की जटिल भौगोलिक स्थिति के कारण भी हर अग्नि प्रभावित क्षेत्र तक पहुंच पाना मुश्किल होता है। वैसे एक हकीकत यह है कि आग बुझाने के प्रयासों से ज्यादा जरूरी है कि हम उन स्थितियों पर पहले से निगरानी रखें जो आग लगने का कारण बनती हैं। जंगलों में पतझड़ के बाद जमा पत्तियों को अलग करने का प्रयास करना चाहिए, जिससे आग के लिये सहज ईंधन न मिल सके। अकसर देखने में आता है कि कुछ वृक्षों के ज्वलनशील अवयव हर साल आग में घी का काम करते हैं। जिनको हटाने के लिये ग्रामीणों की मदद ली जानी चाहिए। वैसे एक हकीकत यह भी है कि सख्त वन कानूनों के चलते स्थानीय लोगों को वन संपदा में भागीदारी से वंचित करने के बाद ग्रामीणों का वन संपदा संरक्षण के प्रयासों से मोह भंग हुआ है। यह एक हकीकत है कि ग्राम पंचायतों जैसी इकाइयों की जवाबदेही तय करने से इस संकट को दूर करने में मदद मिल सकती है। जंगलों में लगने वाली आग पर नियंत्रण को लेकर जैसी समझ स्थानीय ग्रामीणों में होती है, वैसी समझ वेतन-भत्ता भोगी कर्मचारियों में नहीं हो सकती। सही मायनों में ग्रामीणों की जीवटता व अनुभव जंगल की आग पर काबू पाने में अधिक कारगर साबित हो सकते हैं। इस दिशा में शासन व प्रशासन को गंभीरता से सोचने की जरूरत है। अन्यथा आग लगने का अनवरत सिलसिला यूं ही जारी रहने वाला है। इसके अलावा वन विभाग व कर्मचारियों की जवाबदेही भी तय करनी होगी कि जंगलों में आग लगने में सहायक स्थितियों पर समय रहते काबू पा लिया जाए। जंगलों में आग के विस्तार को रोकने के लिये इस तरह के अवरोधक लगाये जाने चाहिए, जो आग को फैलने से रोक दें। यह एक गंभीर संकट है और गंभीर समाधान की मांग करता है।

Advertisement

Advertisement
Advertisement