रोशनी बांटती प्रगतिशील सोच
रतन चंद ‘रत्नेश’
‘इस दुनिया को बचाने के लिए एक कबीर, एक गांधी, एक बुद्ध बहुत हैं। जब शोर बढ़ेगा, ये इस दुनिया में आएंगे और अपने मुट्ठी भर प्रयासों से इतना कुछ तो बचा ही लेंगे कि विनाश के बाद भी बचे रहने की संभावनाएं बनी रहे।’ समीक्ष्य पुस्तक ‘सुनो कबीर’ का अंत इसी आशा के साथ होता है और इसी आशा-निराशा की धूप-छांव से गुजरता है सोनी पांडेय का यह उपन्यास जिसका निष्कर्ष है- ‘कबीर कभी मरते नहीं। वह हर उस आदमी में जिंदा है जो इस दुनिया को रास्ता दिखलाता है।’ इस दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हर हाल में इसकी सुंदरता को बचाए रखना चाहते हैं। आप कालिख फेंकेंगे, वे रंग घोल लेंगे। अक्षर मिटाएंगे, वे शब्द खोज लेंगे।’
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के एक कस्बे इब्राहिमपुर की चौहद्दी में घूमता रहता है यह उपन्यास जहां रंगमंडल है, साहित्य है, अंधविश्वास व असामाजिकता को मिटाती प्रगतिशील सोच है और जिनके पैरोकार हैं रंगकर्मी उस्मान और फेकू, पत्रकार मनोहर और नारी-स्वतंत्रता की कर्णधार मोनिका। एक स्कूल की अध्यापिका मोनिका यहां की महिलाओं और अपनी छात्राओं को सशक्त बनाने का निरंतर प्रयास करती दिखती हैं जबकि उस्मान चाहता है कि रंगमंच के माध्यम से साहित्य और संस्कृति खूब फले-फूले। हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करते यह कस्बा भी मौजूदा हालात में पैदा किए गए विद्वेष से बच नहीं पाता है। मानसिक संतुलन खोकर उस्मान आखिरकार वह इस जहां को अलविदा कर जाता है और अपने पीछे छोड़ जाता है ग़ज़लों का अकूत भंडार। मनोहर और मोनिका मिलकर उसे दस खंडों में प्रकाशित करवाते हैं। उपन्यास में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कई विषयों को संजीदगी से उठाया गया है जिससे यह पठनीय बन पड़ा है।
पुस्तक : सुनो कबीर लेखिका : सोनी पांडेय प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज पृष्ठ : 112 मूल्य : रु. 199.