देवालयों से पर्यावरण संरक्षण का उद्घोष
पंकज चतुर्वेदी
जयपुर के परकोटे में स्थित ताड़केश्वर मंदिर की खासियत है कि यहां शिवलिंग पर चढ़ने वाले जल को नाली में बहाने के बनिस्बत, एक चूने के बने कुंड, जिसे परवंडी कहते हैं, के जरिये धरती के भीतर एकत्र किया जाता है। यह परम्परा भी है और संस्कार भी। यह प्रक्रिया उस इलाके के भूजल के संतुलन को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है। हो सकता है कि प्राचीन परम्परा में शिवलिंग पर जल चढ़ाने का असली मकसद इसी तरह भविष्य के प्रकृति-प्रकोप के हालात में जल को सहेज कर रखना हुआ करता हो। उस काल में मंदिरों में नाली तो होती नहीं थी, यह एक सहज प्रयोग है और बहुत कम व्यय में शुरू किया जा सकता है। यदि दस हज़ार मंदिर इस उपाय को अपनाते हैं और हर मंदिर में औसतन एक हज़ार लीटर पानी प्रतिदिन शिवलिंग पर आता है तो गणित लगा लें, हर महीने कितने अधिक जल से धरती तर रहेगी।
जयपुर के चौड़ा रास्ता स्थित इस मंदिर का निर्माण 1784 ईस्वी में किया गया था। शायद इसी मंदिर से प्रेरणा पाकर जयपुर के ही एक ज्योतिषी और सामाजिक कार्यकर्ता पंडित पुरुषोत्तम गौड़ ने पिछले दो दशकों में राजस्थान के करीब 300 मंदिरों में जलसंरक्षण ढांचे का विकास किया है। समाज सेवा और ज्योतिष के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए गौड़ को महाराणा मेवाड़ अवार्ड समेत कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है। उन्होंने वर्ष 2000 में अपना जलाभिषेक अभियान शुरू किया। वे मंदिरों में 30 फुट गहरा गड्डा बनवाते हैं और शिवलिंग से आने वाले पानी को रेत के फिल्टरों से गुजार कर जमीन में उतारते हैं। इसके अलावा प्रतिमाओं पर चढ़ाए जाने वाले दूध को जमा करने के लिए पांच फुट के गड्ढे की अलग से जरूरत पड़ी। हिसाब लगाया गया था कि शहर में 300 से ज्यादा मंदिर हैं जहां श्रावण महीने में रोजाना लाखों लीटर जल भगवान शिव व अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं पर अर्पित किया जाता है। नि:संदेह इससे जल संरक्षण तो हुआ।
ऐसा ही प्रयोग लखनऊ के सदर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिर में भी किया गया। यहां भगवान शंकर के जलाभिषेक के बाद जल नालियों के बजाय सीधे जमीन के अंदर जाता है। कोई 160 साल पुराने इस मंदिर का वर्ष 2014 में जीर्णाेद्धार किया गया। 12 ज्योतिर्लिंग की स्थापना उनके मूल स्वरूप के अनुसार की गई है। यहां करीब 40 फीट गहरे सोख्ते में सिर्फ अभिषेक का जल जाता है जबकि दूध और पूजन सामग्री को अलग इस्तेमाल किया जाता है। बेलपत्र और फूलों को एकत्रित कर खाद बनाई जाती है। चढ़ाए गए दूध से बनी खीर का वितरण प्रसाद के रूप में होता है। यहीं मनकामेश्वर मंदिर में भी सोख्ते का निर्माण किया गया है। यहां चढ़े फूलों से अगरबत्ती बनाई जाती है। वहीं बेलपत्र और अन्य पूजन सामग्री को खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बड़ा शिवाला और छोटा शिवाला में चढ़ने वाले दूध की बनी खीर भक्तों में वितरित की जाती है और जल को भूमिगत किया जाता है।
मध्यप्रदेश के शजापुर जिला मुख्यालय पर स्थित प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढ़ने वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते। इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है। इसके लिए केंचुए लाए गए हैं। इस खाद को पास के गांव वाले श्रद्धा से ले जा रहे हैं और अपने खेतों में इस आस्था के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं कि देवी कृपा से उनकी फसल अच्छी रहेगी। यहां पर खाद बनाने के लिए मंदिर प्रांगण में चार चक्रीय वर्मी कम्पोस्ट यूनिट का शेड सहित निर्माण किया गया है। मंदिर में नित्य आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा फूल व मालायें चढ़ाई जाती हैं। पहले उन फूल व मालाओं को नदी में फेंका जाता था जिससे नदी भी दूषित होती थी। मंदिर प्रांगण में वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए 12 फीट लम्बाई 12 फीट चौड़ाई व 2.5 फीट गहरे चार टांके बनाए गए हैं, जिसके बीच की दीवार जालीनुमा बनाई गई है। इस चक्रीय पद्धति में चौथे महीने से बारहवें महीने तक हर महीने लगभग 500 किलो खाद मिलना प्रारंभ हो जाती है। इस प्रकार 8 महीनों में 4000 किलो जैविक खाद तैयार हो रही है। इस प्रकार रोज एकत्रित होने वाले फूल व मालाओं के कचरे से जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया सतत चलती रहेगी। तैयार होने वाली इस खाद में पोषक तत्वों व कार्बनिक पदार्थों के अलावा मिट्टी को उर्वरित करने वाले सूक्ष्म जीवाणु भी बहुतायत में होते हैं।
मंदिर में चढ़ाए गए फूलों को खाद में बदलने का काम दिल्ली के मशहूर झंडेवालाना मंदिर में भी हो रहा है। इसके अलावा देवास, ग्वालियर, रांची के पहाड़ी मंदिर सहित कई स्थानों पर चढ़ावे के फूल-पत्ती को कंपोस्ट में बदला जा रहा है। अभी जरूरत है कि मंदिरों में पॉलिथीन थैलियों के इस्तेमाल, प्रसाद की बर्बादी पर भी रोक लगे।
यह जानना जरूरी है कि पुष्प या बेलपत्र चढ़ाने से भगवान के प्रसन्न होने की परंपरा असल में आम लोगों को अपने घर में हरियाली लगाने को प्रेरित करने का प्रयास था। विडंबना है कि अब लोग या तो बाजार से फूल खरीदते हैं या फिर दूसरों की क्यारियों से उठा लेते हैं। काश! हर मंदिर यह अनिवार्य करे कि केवल स्वयं के बगीचे या गमले में लगाए फूल ही भगवान के लिए स्वीकार किये जाएंगे तो हर घर में हरियाली का प्रसार सहजता से हो जाएगा।