For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

दलीय हित पर समझौते को प्राथमिकता ही कारगर रणनीति

06:21 AM Jul 04, 2023 IST
दलीय हित पर समझौते को प्राथमिकता ही कारगर रणनीति
Advertisement
केएस तोमर

राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने और कई बार क्रांतिकारी बदलावों की शुरुआत बिहार से हुई। साल 1974 में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल बजाया। उसके बाद 1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा लालकृष्ण अडवाणी की रथयात्रा को भी बिहार के समस्तीपुर में रोका गया। ये दोनों भारत के राजनीतिक इतिहास को प्रभावित करने वाली प्रमुख घटनाएं हैं।
लगता है कि अब इतिहास एक बार फिर स्वयं को दोहराने जा रहा है जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी राजनीतिक ध्रुवों के 15 प्रमुख राजनेताओं को एक मंच पर लाकर ‘मोदी हटाओ’ के अभियान को धार प्रदान कर दी है। यद्यपि सीएम नीतीश कुमार की इस पहल को अमलीजामा पहनाने की राह में अनेक अड़चनें हैं जिनमें आपसी वैचारिक मतभेद, क्षेत्रीय नेताओं का अहम‍् और कई मामलों में निजी कटुता विशेषकर कांग्रेस के प्रति दुर्भाव शामिल है। वहीं विपक्ष के पास ऐसे कद्दावर नेता का अभाव है जो नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सके। यही कारण है कि भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने नीतीश कुमार के इस प्रयास को ‘मृगतृष्णा’ की संज्ञा दी है। वहीं दावा किया कि इससे पूर्व विपक्षी एकता के प्रयासों की भांति यह प्रयास भी असफल होगा।
इसका पहला उदाहरण आम आदमी पार्टी का मामला है। यदि कांग्रेस दिल्ली में केंद्र सरकार द्वारा लाये अध्यादेश के खिलाफ आम आदमी पार्टी का समर्थन नहीं करती है तो वह इस एकता का हिस्सा नहीं बनेगी जिसका लाभ भाजपा को साल 2024 के लोकसभा चुनाव में आप शासित दिल्ली और पंजाब में मिलेगा।
हाल ही में कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में मिली जीत से कांग्रेस का मनोबल ऊंचा है मगर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी लंबी लड़ाई है। लोकसभा चुनावों से पहले इस वर्ष के अंत में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव हैं जहां कांग्रेस के समक्ष दो राज्यों अपनी सरकारें बचाना और एक में जीतना बड़ी चुनौती है। इन राज्यों में चुनावी विजय के लिए भाजपा कोई भी कसर नहीं छोड़ेगी।
यदि 2024 के लोकसभा चुनावों की बात की जाए तो जानकार एकमत हैं कि लगभग 150 सीटों पर कांग्रेस व भाजपा में सीधा मुकाबला है। ये संसदीय क्षेत्र राजस्थान, हिमाचल, कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में हैं। वहीं महाराष्ट्र में कांग्रेस शिवसेना के नेतृत्व वाले महा विकास अघाड़ी का हिस्सा है जिसमें एनसीपी भी शामिल है।
रणनीति के अनुसार विपक्ष का प्रयास है कि हर सीट पर भाजपा के मुकाबले केवल एक ही प्रत्याशी खड़ा किया जाए। लेकिन विपक्षी दलों को इसमें काफी कठिनाई आयेगी क्योंकि कई दलों को ऐसी कई सीटों पर समझौता करना होगा जहां वे स्वयं को मजबूत मानते हैं। इसी प्रकार कांग्रेस को भी उन राज्यों में अन्य दलों के साथ सीटें साझा करनी होंगी जहां उनका प्रभाव है। प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी के लिए व पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के लिए सीटें छोड़ेगी। लेकिन कांग्रेस के लिए तमिलनाडु, बिहार और महाराष्ट्र में अधिक सीटें मिलने की संभावना है जहां लोकसभा की 128 सीटें आती हैं। कांग्रेस का यहां क्षेत्रीय दलों से गठबंधन है।
यद्यपि दिल्ली अध्यादेश के कारण कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में कुछ खटास है लेकिन राहुल गांधी ने यह कहकर आपसी एकता के प्रयासों को बल दिया है कि भाजपा और संघ की विचारधारा का मुकाबला एकजुटता से ही हो सकता है, सभी दलों को राजनीतिक व निजी विरोधों को अलग रखना होगा। लेकिन इसके बावजूद अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के खिलाफ मुखर थे। हालांकि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती आदि ने एकता का समर्थन कर केजरीवाल द्वारा की गयी टिप्पणियों को नजरअंदाज कर दिया। बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, शिव सेना नेता उद्धव ठाकरे व एनसीपी नेता शरद पावर के विचार भी एकता को प्राथमिकता देने वाले थे।
विश्लेषकों का मानना है कि 15 विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं ने एक मंच पर आकर सैद्धांतिक तौर पर सहमति दी कि 2024 के लोकसभा चुनाव एकजुट होकर लड़े जाने चाहिए ताकि भाजपा को हटाया जा सके। लेकिन इसे अमलीजामा पहनाने के लिए मशक्कत करनी होगी। ‘मोदी हटाओ’ अभियान को सफलता तभी मिलेगी जब क्षेत्रीय क्षत्रप और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान रखने वाली कांग्रेस पार्टी लचीला रुख अपनाए। यदि सभी दल कुछ नुकसान उठाने को तैयार नहीं होते तो एकता नहीं हो पाएगी और लाभ भाजपा को मिलेगा। मानना होगा कि भाजपा के पास सशक्त नेतृत्व, समर्पित कार्यकर्ता और संसाधन हैं जो सभी चुनाव जीतने के लिए आवश्यक हैं।
पटना में एकजुट हुए राजनीतिक दल 200 से अधिक लोकसभा सीटों पर प्रभाव रखते हैं लेकिन 2019 में एकजुटता के अभाव में केवल 63 सीटें ही जीत पाए थे। इसके मुकाबले बैठक से दूर रहे आंध्र के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 43 सीटें जीती थीं और इनका अभी तक का झुकाव भाजपा की ओर है। इन परिस्थितियों में क्षेत्रीय दलों के नेताओं द्वारा समझौते को प्राथमिकता देकर ही भविष्य की रणनीति बनाई जा सकेगी ताकि प्रत्येक सीट पर भाजपा को सीधी टक्कर दी जा सके। पटना बैठक के निर्णय मुताबिक, अगली बैठक जुलाई मध्य में शिमला में तय है जहां आपसी मतभेद कम करने की क़वायद होगी। देखना होगा कि इसके क्या परिणाम निकलते हैं।

Advertisement

लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

Advertisement
Advertisement
Tags :
Advertisement