अवसर-समता के सिद्धांत व आरक्षण राजनीति
उमेश चतुर्वेदी
हाल में संसद द्वारा 127वें संविधान संशोधन को मंजूरी देने के बाद आरक्षण की व्यवस्था एक बार फिर चर्चा में है। इस संशोधन का मकसद पिछड़े वर्ग की अपने यहां के जातिगत आधार पर सूची बनाने का अधिकार राज्यों को देना है। इससे गैर आरक्षित या गैर पिछड़े आरक्षित वर्ग के लोग हों, इस संविधान संशोधन से उनकी सेहत पर असर नहीं पड़ने वाला है। लेकिन इससे एक स्पष्ट संकेत तो मिलता ही है कि राजनीति के चक्कर में आरक्षण की व्यवस्था वहां पहुंच गई है जहां से उसका वापस लौट पाना संभव नहीं। आरक्षण की व्यवस्था करते वक्त संविधान सभा सोच रही थी कि इस व्यवस्था के बाद समाज खुद ही छुआछूत की व्यवस्था को तोड़ देगा और एक दिन ऐसा आएगा, जब भारत की बुनियाद समता मूलक समाज होगा।
सवाल यह है कि क्या संविधान सभा की सोच के मुताबिक देश इस दिशा में आगे बढ़ पाया है? निश्चित तौर पर इसका जवाब न में है। जाति तोड़ने के लिए बनी आरक्षण व्यवस्था जाति आधारित राजनीतिक ताकत हासिल करने की व्यवस्था को मजबूत करती जा रही है। इस वजह से हर जाति कम से कम राजनीतिक स्तर पर खुद के लिए आरक्षण हासिल करने में ही अपनी ताकत देख रही है। इस पूरी प्रक्रिया में गैर आरक्षित समुदाय खुद और अपने सामुदायिक भविष्य की हालत को चुपचाप देखता नजर आ रहा है। हाल के वर्षों में आरक्षण विरोधी आंदोलन चूंकि नाकाम रहे हैं, इसका भान गैर आरक्षित वर्ग के लोगों को है। लिहाजा वह चुप है, लेकिन वह कुछ-कुछ उसी तरह सोच रहा है, जिसकी आशंका आरक्षण पर हुई बहस के दौरान संविधान सभा के सदस्य पीजी देशमुख ने जताई थी। तब देशमुख ने कहा था, ‘चूंकि इस व्यवस्था में गैर आरक्षित लोगों के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या नहीं है, लिहाजा भविष्य में उनको हाशिए पर डाल देने की आशंका है। अल्पसंख्यकों को विशेष सुरक्षा प्रदान करने में बहुमत की अनदेखी की जा रही है।’
पीजी देशमुख की इस आशंका को संविधान सभा में खारिज करने के लिए कई तर्क दिए गए थे। तब मोटे तौर पर संविधान सभा भी इस बिंदु पर एकमत हुई थी कि खुद समाज को ही गैर बराबरी खत्म करने के लिए आगे आना होगा। यही वजह थी कि संविधान सभा के एक सदस्य ठाकुर दास भार्गव ने राय दी थी कि आरक्षण का प्रावधान दस साल से ज्यादा के लिए नहीं किया जाना चाहिए। खुद अंबेडकर भी इसी राय के थे। उन्हें उम्मीद थी कि दस बरसों में आजाद भारत की सोच और सरकारी तंत्र के कार्य इतने तेज होंगे कि इस प्रावधान की जरूरत ही नहीं रहेगी। लेकिन राजनीतिक तंत्र की ओर से इस दिशा में वैसी तत्परता नहीं दिखी, जैसी कि होनी चाहिए। रही बात नौकरशाही की तो उसका तो मानस ही नहीं बन पाया। वैसे आज भी वह अहं ब्रह्मास्मि की ही सोच के साथ आगे बढ़ रही है। जब आजादी के इतने सालों में भी उसकी सोच में बदलाव नहीं आ पाया तो उस वक्त सोच कैसी रही होगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। पक्ष या विपक्ष के पचड़े में पड़े बिना देखें तो मौजूदा राजनीतिक तंत्र की सोच आरक्षण व्यवस्था को अनंत काल तक बनाए रखने की है। वैसे भी राजनीति आज जिस मुकाम पर पहुंच गई है, उसमें किसी भी राजनीतिक दल की हिम्मत नहीं है कि वह इस व्यवस्था को खत्म कर दे।
संविधान सभा के सदस्य मनमोहन दास और मुनिस्वामी की मांग थी कि आरक्षण व्यवस्था के लिए दस साल की अवधि की बाध्यता खत्म होनी चाहिए। उनका कहना था कि इसके लिए कोई अवधि होनी ही नहीं चाहिए। लेकिन दोनों सदस्यों की इस मांग को खुद डॉक्टर अंबेडकर ने ही खारिज कर दिया था। जबकि वे खुद आरक्षण व्यवस्था के सबसे बड़े हिमायती थे। आरक्षण व्यवस्था की हिमायत करते हुए उन्होंने संविधान सभा में मुसलमानों और ईसाइयों को तवज्जो दिए जाने का हवाला दिया था। उनका कहना था कि 1892 से मुसलमानों और 1920 के संविधान से ईसाइयों को सरकारी नौकरियों में विशेष अधिकार प्राप्त हैं। अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने के लिए तर्क दिया था कि चूंकि अनुसूचित जाति को लाभ 1935 के संविधान और व्यावहारिक रूप से 1937 में उसके लागू होने से मिला है, लिहाजा उन्हें लंबी अवधि के लिए आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन अंबेडकर भी खुद इस व्यवस्था को अनंत काल तक बनाए रखने के लिए तैयार नहीं थे।
बेशक अंबेडकर संविधान के हिमायती थे, लेकिन वे खुद भी मानते थे कि सवर्ण भी वंचित रहा है। आरक्षण की वकालत करते हुए उन्होंने संविधान सभा में जो कहा था, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था, ‘डेढ़ सौ वर्ष तक देश में अंग्रेजी शासन-व्यवस्था मजबूती से कायम रही। इसमें प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण भारतीय सवर्ण अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में भारत के दलित समाज की स्थिति का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।’ यानी वे भी मानते थे कि गैर आरक्षित समूहों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं रही है।
मौजूदा राजनीति को अतीत की इन बहसों की ओर भी झांकना चाहिए। संविधान सभा के लोग कितने दृष्टि संपन्न थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो-जो सवाल आज उठ रहे हैं, उनकी कल्पना उन्होंने पचहत्तर साल पहले ही कर ली थी। पीजी देशमुख जैसे लोगों की चिंताओं को समझते हुए भावी भारत की कल्पना करते हुए संविधान सभा में हृदयनाथ कुंजरू ने जो सुझाया था, वक्त आ गया है कि राजनीति उस पर अमल करे। तब कुंजरू ने कहा था, ‘संविधान के लागू होने के दस साल बाद तक आरक्षण लागू करने के प्रावधान में बाधा नहीं होगी, लेकिन यह अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए। इसकी समय-समय पर जांच होनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की हालत में बदलाव आ भी रहा है या नहीं? और राज्यों ने उन्हें वर्तमान दशा से ऊपर उठाने के लिए और योग्य बनाने के लिए, अन्य वर्गों की बराबरी पर लाने के लिए उचित कार्यवाही की है कि नहीं?’
मौजूदा स्थितियों के मद्देनजर भले ही चुप्पियां हों, लेकिन कुंजरू जैसे सवाल और सुझाव बहुत सारे दिमागों में हैं। खासकर नई पीढ़ी के प्रतिभावान लोग जब सरकारी नौकरियों में पिछड़ते हैं तो उनमें ऐसे ही सवाल उभरते हैं। तब उनका सवाल होता है कि आखिर वे क्यों समझौता करें? ये सवाल और आरक्षण की अनंतकालीन व्यवस्था के बीच यह तनातनी कहीं सामाजिक असंतुलन की वजह ना बने, इसकी ओर भी देखा जाना चाहिए। यहां याद रखना होगा कि खुद अंबेडकर ने ऐसा नहीं सोचा था। आरक्षण पर बहस के जवाब में उन्होंने जो कहा था, उसे ध्यान में रखना चाहिए। अंबेडकर ने कहा था, ‘यदि हम उन लोगों की मांग को मान लेते, जिन्हें अब तक सरकारी नौकरियों में पूरी जगह नहीं दी गई तो इसका अर्थ यह होगा कि हम अवसर-समता के सिद्धांत की हत्या कर देंगे। इसी तरह एक या कुछ सम्प्रदायों के लिए 70 प्रतिशत आरक्षण दें और बाकी लोगों के लिए प्रतियोगिता में सिर्फ तीस प्रतिशत जगह बचे, यह भी अवसर-समता के सिद्धांत को अमली रूप देने के ख्याल से ठीक नहीं होगा। इसका मतलब यह है कि आरक्षण भी अवसर-समता के सिद्धांत के अनुरूप रखना होगा; इसीलिए मेरी राय में आरक्षण सीमित जगहों के लिए ही होना चाहिए।’
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।