बदलाव में विसंगतियों की चुभन
केवल तिवारी
‘जेनरेशन गैप’ के कुछ स्याह और श्वेत पक्ष हर पीढ़ी को संभवतः समझ आते होंगे। कुछ पुरानी बातें अच्छी होती हैं और कुछ नये बदलाव। समय के साथ परिवर्तन होना ही है। कुछ संदर्भ में तो यह परिवर्तन अवश्यंभावी हो सकता है, लेकिन प्रकृति जब संकट में नज़र आए तो यह ‘गैप’ का तमगा बेहद दुखदाई लगने लगता है। आखिर बदलाव का ऐसा रूप हमें कहां ले जाएगा। नयी पीढ़ी इसकी चिंता नहीं करेगी तो दुखदायी होगा, त्रस्त होकर प्रकृति रौद्ररूप दिखाएगी ही और जिन बुजुर्गों ने प्रकृति के मामले में स्वर्णिम दौर देखा हो, वे तो पस्त होंगे ही।
कुदरती सौंदर्य के बीच पले-बढ़े और नौकरी कर चुके लेखक आईबी वर्मा ने अपनी हालिया किताब ‘प्रकृति त्रस्त, बुजुर्ग पस्त, बच्चे मस्त’ में ऐसी ही परेशान करने वाले बदलाव के बारे में लिखा है। आत्मकथात्मक शैली में तैयार यह किताब 60 से 80 के दशक में युवावस्था में रह चुके लोगों को ज्यादा आकर्षित कर सकती है। कई बातें उन्हें खुद से जुड़ी-सी लगेंगी। पुरानी बातों को याद करते हुए लेखक ने नयी पीढ़ी की कुदरत के प्रति उदासीनता के मुद्दे को भी उठाया है और साथ ही आगाह भी किया है।
लेखक ने अच्छे बदलावों को सराहा है और निर्भीकता से विकास के नाम पर ‘विनाश लीला’ की खुलकर मुखालफत भी की है। अपनी कर्मस्थली में दिख रहे बदलाव का रेखाचित्र खींचते हुए लेखक ने व्यापक संदेश दिया है, और इसी व्यापकता में उन्होंने संबंधित राजनीतिक पहलुओं को भी छूने की कोशिश की है। लंबे वाक्य और कुछ जगह प्रूफ संबंधित त्रुटियां अखरती हैं, लेकिन पुस्तक का संदेश इतना बेहतरीन है कि ये त्रुटियां नजरअंदाज हो ही जाती हैं। पुस्तक पठनीय है।