भू-संरक्षण कानून को प्रासंगिक बनाने का दबाव
जयसिंह रावत
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा अगले बजट सत्र में सशक्त भू-कानून लाने की घोषणा एक महत्वपूर्ण कदम है। हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड अकेला राज्य है, जहां कठोर कानून के अभाव में जमीनों की बेलगाम खरीद-फरोख्त जारी है। हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर गैर-कृषकों द्वारा कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त पर रोक के लिये उत्तराखंड में कानून अवश्य बना था लेकिन ऐसा कानून बनाने वाली राज्य की पहली निर्वाचित तिवारी सरकार ने उस कानून में धारा दो जोड़ कर पहला छेद कर डाला था। सन् 2017 के बाद किए गए बार-बार के संशोधनों ने वास्तव में भूमि संरक्षण से जुड़े कानून की प्रासंगिकता को कमजोर कर दिया।
नया भूमि प्रबंधन कानून बनाने के लिये गठित पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता वाली समिति अपनी रिपोर्ट 5 सितम्बर, 2022 को सौंप चुकी थी, लेकिन उस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था।
यह धारणा इसलिये भी पुष्ट हुई कि नारायण दत्त तिवारी सरकार द्वारा काश्तकारों की जमीनें बचाने के लिये 1950 के अधिनियम में संशोधन कर जो कानून बनाया गया था उसमें भी भाजपा की ही त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने 2018 में औद्योगीकरण के नाम पर उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950)(अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) की धारा 154, 143 एवं 129 में संशोधन कर इस कानून को लगभग निष्प्रभावी ही बना दिया था। उसके बाद फिर उसी भू-कानून की धारा 143 की उपधारा ‘क’ और ‘ख’ को हटाने से तिवारी द्वारा बनाये गये भू-कानून का प्रभाव समाप्त हो गया था। इन धाराओं में प्रावधान था कि अगर उद्योग के लिये हासिल की गयी जमीन का 2 साल के अन्दर उसी प्रयोजन के लिये उपयोग नहीं किया गया तो कलक्टर धारा 167 के तहत उस जमीन को जब्त कर सरकार में निहित कर लेगा।
अब मुख्यमंत्री धामी ने यह कह कर सशक्त भू-कानून की आशा फिर जगा दी कि उत्तराखंड (उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में 2017 के बाद किये गये संशोधनों के लक्ष्य हासिल नहीं हुए हैं। उस समय राज्य में 125 लाख करोड़ के पूंजी निवेश के इच्छापत्रों पर हस्ताक्षर हुए थे। लेकिन अब मुख्यमंत्री ने स्वीकार कर लिया कि संशोधनों से भूमि कानून में दी गयी शिथिलता के बावजूद औद्योगिक निवेश का मकसद हल नहीं हुआ।
दरअसल, इन्हीं संशोधनों के खिलाफ उत्तराखंड में जहां तहां लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। यही नहीं मुख्यमंत्री ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि सशक्त भू-कानून के लिये गठित सुभाष कुमार समिति की सिफारिशों की भी समीक्षा की जा रही है और सरकार अगले बजट सत्र में निश्चित रूप से एक सशक्त भू-कानून को पास करा देगी। समिति ने हिमाचल प्रदेश काश्तकारी एवं भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 118 से मिलती-जुलती 23 सिफारिशें कर रखी हैं।
उत्तराखंड में औद्योगीकरण के नाम पर सन्् 2018 से लेकर अब तक प्राइम लैंड लगभग बिक चुकी है। जमीनों की बेतहाशा खरीद-फरोख्त नगरीय क्षेत्रों और उनके आसपास ही हुई है। इसीलिये भूमि कानून में धारा-2 रखी गयी थी। उस धारा के अनुसार कृषि भूमि की खरीद पर अंकुश वाला प्रावधान नगर निकाय क्षेत्रों पर लागू नहीं होता है। जबकि पहले अध्यादेश वर्ष 2003 संख्या 6 में समस्त उत्तरांचल पर यह बंदिश लागू करने का प्रावधान रखा गया था। इस धारा का लाभ भूमि सौदागरों को पहुंचाने के लिये सन् 2017 में ही प्रदेश के 13 में से 12 जिलों के 385 गांवों को 45 नगर निकायों में शामिल कर 50,104 हेक्टेयर जमीन को खरीद-फरोख्त की बंदिशों से मुक्त कर दिया गया था।
उत्तराखंड अकेला हिमालयी राज्य है, जहां जमीनों का धंधा सर्वाधिक फल फूल रहा है। यहां की व्यावसायिक और आवासीय महत्व की सभी जमीनें भूमिखोरों के चंगुल में चली गयी हैं। यहां तक कि राजनीतिक लोग भी इस धंधे में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से शामिल हैं। वास्तव में अगर सरकार एक सशक्त भूमि कानून बना रही है तो उसे देर से आया हुआ दुरुस्त फैसला माना जा सकता है, बशर्ते कि जनभावनाओं के अनुकूल और व्यावहारिक कानून बना दे। अगर सरकार उत्तराखंड में उपान्तरित और अनुकूलित जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 में 2017 के बाद के सभी संशोधन समाप्त कर देती है तो भी पूरा मकसद हल नहीं होता। इसके साथ ही सरकार को अधिनियम की धारा दो पर भी पुनर्विचार करना चाहिए। उत्तराखंड में बहुत तेजी से नगरीकरण हो रहा है और उसी तेजी से सरकारें नगर निकायों का विस्तार और उनकी संख्या बढ़ाती रही हैं।
राज्य को उत्तर प्रदेश से विभिन्न भूमि संबंधी कानून विरासत में मिले हैं। इन सभी कानूनों को मिलाकर एक एकीकृत भूमि संहिता बनाई जा सकती है। सरकार का कार्य भूमि प्रबंधन के साथ-साथ भूमि सुधार भी है। इसके लिए भूस्वामित्व के रिकॉर्ड के साथ भूमि के प्रकार की इन्वेंटरी बनाना आवश्यक है।
गांवों में जमीनों की अदला-बदली के कारण भूमि रिकॉर्ड अपडेट नहीं हैं। राजस्व अधिनियम 1901 के अध्याय 5 से 8 लोप हो जाने के कारण सरकार के पास जमीनों का बंदोबस्त करने का कोई कानूनी आधार नहीं है। 1960 के दशक से प्रदेश में जमीनों का बंदोबस्त नहीं हुआ है, जिससे रिकॉर्ड अद्यतन नहीं हो पाए हैं। छोटी और बिखरी जोतें भूमि सुधार की दिशा में सबसे बड़ी अड़चन हैं, लेकिन सरकार चकबंदी भी नहीं कर पा रही है।