मन्नत
नरेश शुक्ला
मैंने चांद को बतियाते
कभी नहीं देखा,
पर तारों की ख़ामोशी भी
सुनता हूं हर रात
पर जलता हूं उनके सुकून से
दूर बहुत दूर...
सोचता हूं यह
हमारी नज़रों की पहुंच की
यह आखिरी हद है
या उनकी उदारता
जो मैं देख पता हूं उन्हें
उनकी झिलमिलाहट देख कर
लगता है जैसे अब वह कुछ कहेंगे
शायद कुछ बोले...
मैं भूल जाता हूं कि
उनके पास धैर्य है
गंभीरता है
और
किसी को कुछ दे देने की भावना भी,
तब
मैं खुद से सवाल करता हूं
खुद को टटोलता हूं
ढूंढ़ता हूं यह सब...
मिलती है सिर्फ निराशा
कुछ भी तो नहीं है ऐसा मेरे पास
अचानक नजर फिर ऊपर जाती है
जब एक तारा टूट कर गुम हो जाता है
मुझे भी लगता है
लो हो गयी फिर किसी एक की
‘मन्नत’ पूरी...
मैं धीरे से आंखें बंद कर लेता हूं
और
एक प्रश्नात्मक निश्चय करता हूं कि
क्यों न अब खामोश रहूं
अन्यथा
मैं टूट भी जाऊंगा
और किसी की
‘मन्नत’ भी पूरी नहीं होगी...
मैं एक ‘तारा’ नहीं हूं न...?