तन्मयता की साधना
एक दिन श्रील चैतन्य महाप्रभु पुरी (उड़ीसा) के जगन्नाथ मंदिर में गरुड़ स्तंभ के सहारे खड़े होकर देव दर्शन कर रहे थे। एक स्त्री वहां भक्तों की भीड़ को चीरती हुई देव-दर्शन के लिए उसी स्तंभ पर चढ़ गई और अपना एक पांव महाप्रभुजी के दाएं कंधे पर रखकर दर्शन करने में लीन हो गई। यह दृश्य देखकर महाप्रभु का एक भक्त घबरा कर धीमे स्वर में बोला, ‘सर्वनाश हो गया। जो प्रभु स्त्री के नाम से दूर भागते हैं, उन्हीं को आज एक स्त्री का पांव स्पर्श हो गया।’ वह उस स्त्री को नीचे उतारने के लिए आगे बढ़ा ही था कि चैतन्य महाप्रभु ने सहज भावपूर्ण शब्दों में उससे कहा, ‘अरे नहीं, इसको भी जी भरकर जगन्नाथ जी के दर्शन करने दो, इस देवी के तन-मन-प्राण में श्रीकृष्ण समा गए हैं, तभी यह इतनी तन्मय हो गई कि इसको न तो अपनी और न मेरी देह का ज्ञान रहा। उसकी तन्मयता तो धन्य है। इसकी कृपा से मुझे भी ऐसा व्याकुल प्रेम हो जाए।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी