सूचना कारोबार के अपवित्र गठबंधन का पोस्टमार्टम
अरुण नैथानी
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि आज़ादी के बाद भारतीय पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बड़े निवेश के चलते कालांतर पूंजी विचार की अस्मिता का लगातार अतिक्रमण करने लगी। फिर उदारीकरण के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उफान में पूंजी की भूमिका हस्तक्षेपकारी रही। पूंजी के दमखम के बूते परंपरागत मीडिया व्यवसायियों और कॉर्पोरेट जगत को इसमें बड़े बाजार की संभावना नजर आई। फिर खेल शुरू हुआ टीआरपी का। कहने को तो यह दर्शकों की रुचि के आधार पर चैनलों की लोकप्रियता के आधार पर विज्ञापन देने का माध्यम था, लेकिन कालांतर में यह हजारों-करोड़ के विज्ञापन के बंटवारे का खेल बन गया। एक आम दर्शक को टीआरपी के खेल की भनक तो होती है लेकिन यह खेल कितने बड़े पैमाने पर चलता है इसका खुलासा मुंबई टीआरपी घोटाले से हुआ। इस प्रकरण ने बताया कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है। साथ ही पर्दे के पीछे की राजनीति का खेल भी उजागर हुआ। यह विडंबना ही थी कि रेटिंग करने वाली एजेंसी के कर्ताधर्ताओं की संदिग्ध भूमिका भी उजागर हुई। यहां तक कि ब्राडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल अर्थात् बार्क के पूर्व अधिकारी भी इस खेल में लिप्त पाये गए।
डॉ. मुकेश कुमार इलेक्ट्रानिक मीडिया के विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। दूरदर्शन की प्रसिद्ध समाचार पत्रिका ‘परख’ से वे चर्चा में आए। कालांतर में ‘फिलहाल’, ‘कही-अनकही’, ‘सुबह-सवेरे’ और प्राइम टाइम के कई कार्यक्रमों से अपनी खास पहचान बनायी। उनकी पहले आई पुस्तकें ‘मीडिया का मायाजाल और टीआरपी’, ‘टीवी न्यूज और बाजार’ मीडिया जगत में चर्चा का विषय बनी। देश के समाज और विदेशी घटनाक्रमों पर पैनी निगाह रखने वाले डॉ. मुकेश की अन्य चर्चित पुस्तकों में ‘दासता के बारह बरस’, ‘भारत की आत्मा’, ‘लहूलुहान अफगानिस्तान’, ‘कसौटी पर मीडिया’, ‘टेलीविजन की कहानी’, ‘खबरें विस्तार से’, ‘चैनलों के चेहरे’, ‘मीडिया मंथन’ और ‘फेक एनकाउंटर’ शामिल रहीं। लेखक ने विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता विभागों में अध्यापन का भी कार्य किया।
दरअसल, टीआरपी के टीवी न्यूज पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए किये गए डॉ. मुकेश के शोध के कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। पुस्तक के माध्यम से यह हकीकत बताने की कोशिश हुई है कि यह सिर्फ दर्शकों की पसंद-नापसंद को मापने वाली प्रणाली ही नहीं है बल्कि विज्ञापनों की बंदरबांट भी है। पर्दे के पीछे कई तरह के खेल चल रहे होते हैं। उन्होंने बताने की कोशिश की है कि कैसे टीआरपी के जरिये न्यूज चैनलों का कंटेंट बदला जाता है। उनके छह चैनलों को शुरू करने के अनुभव ने उन्हें इस खेल को परिभाषित करने की गंभीर दृष्टि दी है। निश्चित रूप से यह पुस्तक पत्रकारों व पत्रकारिता के छात्रों को एक हकीकत से अवगत कराएगी।
पुस्तक : टीआरपी-मीडिया मंडी का महामंत्र लेखक : डॉ. मुकेश कुमार प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 300 मूल्य : रु. 250 .