काव्य-बोध में सकारात्मकता
सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
ग़ज़ल संग्रह ‘फूलों के खिलने का मौसम’ विशाल खुल्लर द्वारा उर्दू मजमूआ-ए-अश्आर ‘धुंध में अमां’ का देवनागरी में रूपान्तरण है। इस किताब के मज़ामिन रूपी आईने में, जि़ंदगी से जुड़ी कशमकश, दुश्वारी, मसर्रत है तो रिश्तों की सिलवटों में उलझे जज्बात का अक्स उभरता है। चन्द अश्आर:-
‘मेरे दु:ख की दवा भी रखता है/ख़्ाुद को मुझ से जुदा भी रखता है।’ ‘सजाकर बदन पर दिखा आओ सब को/सदाक़त तुम्हारा है गहना मियां जी।’ ‘बुत-शिकन हूं, मुझे नहीं आता/एक तस्वीर में ढला रहना।’ ‘सच के दरवाज़े पर दस्तक देता रहता हूं/आग की लपटें ओढ़े रहना अच्छा लगता है।’ ‘बांध लो रख्त फिर सफऱ देखो/राह भटको तो उसका घर देखो।’ ‘तेरी चौखट का दीया लगता है/इसने सूरज को छुआ लगता है।’ ‘घुप अंधेरों में झपकती आंख का वारिस है कौन/धूप के मंजर समेटे आइने अपनी जगह।’ ‘सोज़ तेरा था साज़ में पिन्हां/कौन कहता है बंदगी कम थी।’ ‘कितने सूरज नये उभर आए/आस्मां जब बिखर गया मुझ में।’ ‘मिह्र का तेरी ख़्ाुदाया मैं करूं तो क्या गिला/छीन ली परवाज़ लेकिन हौसला रहने दिया।’
इस ग़ज़ल संग्रह के कथ्य-बोध में सकारात्मकता निहित है जो कि जि़न्दगी के अन्तत: ख़्ाुशहाल होने का बाइस है। कुछेक ग़ज़लियात में अध्यात्म के पुरसुकून एहसास का अक्स भी झलकता है। तर्जुमा करते वक्त इल्म-ए-अरूज़ कहीं-कहीं दरकिनार हुआ है। इन ग़ज़लियात के भाव पाठकों के जि़ह्न में अपनी छाप छोड़ने में कमोबेश कामयाब रहेंगे। भाषा ग़ज़ल के अनुरूप है।