घट-घट में व्याप्त है प्रदूषण का खरदूषण
अशोक गौतम
बाजार जाता हूं तो सब्जियों के भाव देखकर दम घुटने लगता है। किसी ऑफिस में छोटा-मोटा काम करवाने जाता हूं तो काम करने वालों के भाव देख दम घुटने लगता है। रिश्तेदारों से मिलने जाता हूं तो उनके नखरे देखकर दम घुटने लगता है। घर में कुछ कहना चाहता हूं तो कहने से पहले ही दम घुटने लगता है।
इन्हीं सबों के बीच आजकल कहीं बचाखुचा घुटता दम हवा के प्रदूषण के बीच घुट रहा है। कल सुबह-सुबह अपना दम घुटता कुछ ज्यादा ही फील किया तो मैंने अपने प्रभु से हाथ जोड़े। व्यवस्था के आगे तो बहुत जोड़ चुका हूं, जितने हाथ जोड़े, ‘हे प्रभु! मेरे शहर का कुछ और सही करो या न, पर हवा सही कर दो! व्यवस्था को आए या न, पर अब तो नाक को भी इस जहरीली हवा में सांस लेते हुए शर्म आ रही है।’
‘तुम कबसे शर्म वाली नाक रखने लगे?’ प्रभु ने अपनी नाक पर रूमाल रखे पूछा तो मैंने कहा, ‘प्रभु! ये वक्त जनता को गैस चेंबर से बाहर निकालने का है। सुना है, आप अपने भक्तों को बचाने नंगे पांव भी दौड़े-दौड़े आते रहे हो?’
‘आता था जब आता था। अच्छा, एक बात बताओ! तुम्हारे पेट में दर्द होता है तो तुम किसके पास जाते हो?’
‘पेट के डॉक्टर के पास, ‘मैंने अपने पेट पर हाथ फेरते कहा।
‘कान में दर्द होता है तो किसके पास जाते हो?’
‘कान वाले डाक्टर के पास, ‘मैंने कान खुजलाते कहा।
‘दिमाग में दर्द होता है तो किसके पास जाते हो?’
‘तय है प्रभु! नहीं जाऊंगा, दिमाग का दर्द और बढ़वाना है क्या?’ मैंने दिमाग खुजलाते कहा।
‘जिस तरह हर दर्द के मंत्री अलग-अलग हैं, ठीक उसी तरह हर प्रदूषण के देवता अलग-अलग हैं। मैं तो जनरल ओपीडी वाला देव हूं। अच्छा बताओ! जब वर्षा नहीं होती तो तुम पानी के लिए किससे गुहार लगाते हो?’
‘जलशक्ति विभाग से।’
‘मतलब जल के देवता अलग हुए न?’
‘अब वायु प्रदूषण है तो वायु देवता के पास जाओ। वायु प्रदूषण का सटीक इलाज वही बता सकते हैं।’ मैंने वहीं पाल्थी मारी, वायुदेव का ध्यान किया तो वे अपने नाक पर रूमाल रखे उसी वक्त हाजिर!
‘कहो वत्स! जहरीली हवा में क्यों याद किया?’ उन्होंने अपनी नाक पर रूमाल रखे रखे पूछा!
‘हे मारुत देव! मेरे शहर की हवा बहुत प्रदूषित हो गई है। अब तो सांस लेने का भी मन नहीं कर रहा है।’
‘तो?’
वे बोले, ‘देखो वत्स! प्रदूषण तो कदम कदम पर है। प्रदूषण है तो जिंदगी है। कहीं राजनीतिक प्रदूषण है तो कहीं धार्मिक प्रदूषण! कहीं सामाजिक प्रदूषण है तो कहीं आर्थिक प्रदूषण! तुम्हारी धरती प्रदूषित भी है। तुम्हारा जल भी प्रदूषित है। तुम्हारा आकाश प्रदूषित भी है। और तो और, तुम्हारा दिमाग तक प्रदूषित है। जहां पर व्यवस्था से ऊंचे कूड़े के पहाड़ बन जाएं वहां मुझसे क्या उम्मीद करते हो? अब तो बस, एक ही रास्ता बचा है कि अपनी नाक पर रूमाल रखे जीते रहो। प्रदूषित हवा में सांस लेते रहो और दूषित पानी अमृत समझ पीते रहो।’