जातिवादी जुमलों से जनमत जुटाने की राजनीति
सनातन धर्म का अर्थ है शाश्वत मूल्य। फिर क्यों डीएमके के नेताओं का झगड़ा इस कालजयी दर्शन से है? सबसे गलीज़ भाषा में गरियाना तो एक तरफ, सनातन धर्म की तुलना भयंकर बीमारी से की गई है। इसके भीतर छिपी है तथाकथित द्रविड़ राजनीति की जातीय नफरत आधारित संकीर्ण चाल। तमिलनाडु की पिछड़ी जाति आधारित चुनावी राजनीति में जिसे -द्रविड़ार विचारधारा- के नाम से जाना जाता है और जिसका शेष दक्षिण भारत में कोई नामलेवा नहीं है– सनातन धर्म को एक प्रतिरोध का शब्द या ब्राह्मणों को गरियाने का विशेषण बना दिया गया है।
तमिलनाडु में पिछड़ी जाति की राजनीति करने वाले नेताओं और उनके मतदाताओं के लिए सनातन धर्म शब्द को प्रतीक बना डाला है ब्राह्मणों के प्राधान्य, कर्मकांड, अंधविश्वास और ब्राह्मणवादी सामंतशाही का। जिस तरह हिंदुत्व की राजनीति करने वाले नेता एक वर्ग विशेष को ‘गैर’ ठहराकर बहुसंख्यकों को इकट्ठा करने में लगे हैं, वैसे ही पिछड़ी जाति की राजनीति करने वाले तमिलनाडु के नेता लोगों को लामबंद करने में सनातन धर्म का इस्तेमाल करते हैं। तथ्य है कि ईवी रामासामी नायकर जो पेरियार के नाम से प्रसिद्ध हैं, ने ब्राह्मण विरोधी नफरत को एक विचारधारा में बदल डाला और इस मंच को ‘द्रविड़ार कझगम’ नाम दिया।
रोचक कि आरएसएस और द्रविड़ार कझगम की स्थापना एक ही साल, 1925 में हुई और उनके आलोचक दोनों पर अंग्रेजों का पिट्ठू होने का इल्जाम लगाते हैं। पेरियार जब मद्रास प्रेसीडेंसी कांग्रेस कमेटी के मुखिया थे, तब उनका ज्यादा जोर ब्रिटिश शासन की बजाय ब्राह्मणों से भिड़ने पर रहा और ब्रितानी हुकूमत समर्थक जस्टिस पार्टी से हाथ मिलाया। रोचक यह भी कि जस्टिस पार्टी का नेतृत्व एक नायर कर रहे थे (जबकि पेरियार के लिए सब गैर-ब्राह्मण दबे-कुचले थे, चाहे वे कितने भी बड़े भूस्वामी क्यों न हों)। द्रविड़ राजनेता ज्यादातर मध्यम जाति श्रेणी से संबंधित थे, हालांकि तकनीकी रूप से उन्हें पिछड़ा या अति पिछड़ा जाति की श्रेणी में गिना जाता था। जो लोग खुद को चोल या पांड्या वंश की संतति बताते हैं, उनमें अधिकांश तमिलनाडु में अब पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कोटे के लाभार्थी हैं।
इसलिए, पेरियार की राजनीति पिछड़ी जातियों के गौरव और सशक्तीकरण को उभारने में मुफीद बैठती है, क्योंकि इसने संख्या के हिसाब से राजनीतिक रूप से गौण ब्राह्मणों को नस्लीय ‘विजातीय’ में तब्दील कर दिया। एक वक्त कांग्रेस में काफी संख्या में नेता ब्राह्मण थे,और पूरी संभावना है, पेरियार ने कांग्रेस और महात्मा गांधी पर हमला करने के लिए गरियाने में सनातन धर्म को एक सुलभ-शब्द बना डाला। ब्रिटिश हुकूमत के प्रति पेरियार के झुकाव का सबूत है, स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध और 1947 में मिली आजादी को अस्वीकार करना। यह उनकी ब्रिटिश-समर्थक, ब्राह्मण-विरोधी राजनीति थी जिसने तमिल अलगाववाद के बौद्धिक ढांचे की नींव रखी, जिसकी कीमत राष्ट्र ने कई जानें गंवाकर चुकाई, इसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी थे -क्योंकि श्रीलंका की एलटीटीई का नेतृत्व रणनीतिक बौद्धिकता के लिए सदा मुख्यभूमि के अतिवादी द्रविड़ार कझगम काडर पर निर्भर रहा।
इसमें यदि अंतर्निहित दोगलापन न होता तो इतना भर भी चल जाता। अब, जब तमिलनाडु में छोटे अल्पसंख्यक के रूप में ब्राह्मण पस्त हो चुके हैं और बेहतर जिंदगी के लिए मातृभूमि छोड़कर पलायन कर रहे हैं। ऐसे में मंदिरों और समाज पर ब्राह्मणों का पुराना आधिपत्य कायम रहना बीते वक्त की बात है। सबसे बड़ी विडंबना यह कि द्रविड़वादी काडर स्वयं बहुत बड़े आस्थावान और मंदिर जाने वाले भक्त हैं! उनके लिए सनातन धर्म शब्द ब्राह्मणों को गरियाने का एक औजार भर है, लेकिन डीएमके के मतदाताओं को अपने नेताओं का ब्राह्मणवाद को गाली देने में और खुद हिंदू धर्म या मंदिरों में आस्था रखने के बीच कोई विरोधाभास क्यों नज़र नहीं आता।
इसीलिए तमिलनाड़ु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पुत्र उदयनिधि स्टालिन एक लिखा-लिखाया भाषण पढ़ना गवारा कर पाए, जिसमें सनातन धर्म से ‘छुटकारा’ पाने की कामना की गई, क्योंकि अब यह और हिंदुत्व की राजनीति और संघ परिवार, एक बराबर है। इस तरह ब्राह्मणवाद और भाजपा को एक ही पलड़े में रखते हुए, हिंदुत्व की अलम्बरदार पार्टी को वह संगठन बताकर अवांछनीय बनाया जा रहा है जो समाज में कथित ब्राह्मणवाद आधारित ऊंच-नीच कायम रखना चाहता है। यदि पेरियार ने सनातन धर्म पर हमले बोलने वाला हथियार इस्तेमाल करके कांग्रेस को अवांछनीय बनाया तो स्टालिन पिता-पुत्र द्वय का पैंतरा है कि तमिलनाडु में भाजपा की पिछड़ी जातियों में पहुंच बनाने की कोशिश को ब्राह्मणवादी उद्यम की रंगत दी जाए।
यह जातिगत नफरत को परोक्ष रूप में चुनावी संदेश देने वाली राजनीति है, जो वक्ता और श्रोता भली-भांति समझते हैं। इससे ज्यादा इसका कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि अभी पिछले महीने ही उदयनिधि की मां दुर्गा स्टालिन ने केरल के सुप्रसिद्ध गुरुवायुर कृष्णा मंदिर में देवता को सोने का मुकुट चढ़ाया है, जहां रोजाना की पूजा वैदिक रीति अनुसार होती हैं। गुरुवायुर की तीर्थ यात्रा या तो वे करते हैं जिनमें बहुत ज्यादा आस्था हो या फिर वे, जिन्हें ज्योतिषी ने किसी ग्रह-दोष निवारण उपाय के तौर पर जाने को कहा हो। जो भी है, दुर्गा स्टालिन इतनी महंगी भेंट न चढ़ातीं यदि इसके पीछे पति-पुत्र की बेहतरी के लिए भगवान कृष्ण की कृपा पाने की चाहत न होती।
सनातन धर्म की जातिवाद और अस्पृश्यता के रूप में व्याख्या करना सबसे बड़ा दोगलापन है। क्योंकि तमिलनाडु के जाने-माने गिरजाघरों में भी भयंकर किस्म का जातिगत भेदभाव है और यहां तक कि गांवों में चाय की दुकानों पर भी, जहां दो तरह के गिलास होते हैं – एक अगड़ी एवं पिछडी जातियों के लिए तो दूसरा दलितों के वास्ते। क्यों पेरियार पर भी आरोप लगते हैं कि 1968 में कीज़वेन्मणि में 44 दलितों की हत्या होने के बाद उन्होंने वहां का दौरा नहीं किया।
एक दलित कार्यकर्ता एवं लेखक ने पेरियार की पत्रिका ‘विदुथलाई’ को उद्धत करते हुए, कीज़वेन्मणि कांड पर पेरियार के विचार बताए हैं ः ‘वामपंथी आपकी मदद करने का नाटक कर रहे हैं। वे वेतन बढ़वाने और बेहतर जिंदगी देने का वादा कर रहे हैं। लेकिन राजनीतिक आंदोलन से पगार में बढ़ोतरी असंभव है। यह केवल वस्तुओं के बाजारी भाव से तय होती है। दलितों को यह सिखाने की बजाय कि जो तन्खवाह मिल रही है, उसी में शांतिपूर्ण जिंदगी कैसे बिताई जाए वे सूबे में दंगे और डीएमके सरकार को अस्थिर कराना चाहते हैं’।
कीज़वेन्मणि कांड का मुख्य आरोपी गोपालाकृष्णा नायडू पेरियार की जाति से था। कोई हैरानी नहीं वर्तमान में भी डीएमके सरकार पर यह कलंक है कि उसने न केवल इस नरसंहार पर पुलिस को मूक-दर्शक बनाए रखा बल्कि बाद में अपील उपरांत नायडू को बरी होने में मददगार भी रही। इसलिए, डीएमके की जाति व्यवस्था विरोधी बातों को दलित-विरोधी जुल्म के परिप्रेक्ष्य में कसौटी पर कसा जाना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे द्रविड़ तर्कवाद पर प्रति-प्रश्न हो कि फिर राज्य के प्रथम परिवार ने भगवान कृष्ण को सोने का मुकुट क्यों चढ़ाया।
राष्ट्रीय स्तर पर, स्टालिन पिता-पुत्र द्वारा सनातन धर्म पर हमला बोलने ने इंडिया गठबंधन को अंतहीन शर्मिंदगी दे डाली है। और यहीं पर भारतीय राजनीति की विद्रूपता अंतर्निहित है –एक सूबे में जातिगत भावनाओं की बांसुरी बजाकर अपने पीछे लोग लगाने वाला काम दूसरे राज्य में सांप्रदायिकता के आधार पर अपनी मुखालफत में उलटा पड़ सकता है।
लेखक प्रधान संपादक हैं।