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राजनीतिक आडंबर बनाम सामाजिक आदर्शवाद

06:30 AM Oct 09, 2023 IST
राजनीतिक आडंबर बनाम सामाजिक आदर्शवाद
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राजेश रामचंद्रन

‘जितनी आबादी उतना हक’ कांग्रेस का नया नारा है। सोच में यह अचानक बदलाव क्यों? यह उस दल का नया नारा कैसे बना,जिसका अपना इतिहास प्रतिनिधित्वकारी राजनीति के सिद्धांत को तोड़-मरोड़ कर, उच्च पदों पर ऊंची जातियों (खासकर ब्राह्मण) के नेताओं को सबसे अधिक आसीन करने का रहा हो। बेशक, नौ साल बाद विपक्ष गोलबंद होने लगा है, पहले ‘इंडिया’ नामक गठबंधन बनाया और अब यह नया दांव-पेच निकाला है। अब तक विपक्ष का सत्तारूढ़ दल पर हमले बोलने का मुख्य तरीका मोदी-विरोधी निंदा और अडाणी जैसे चहेते पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के आरोप रहे हैं और उसने अब यह नया शानदार पैंतरा ढूंढ़ लिया है, जाति-आधारित जनगणना।
हाल ही में एजेंसियों द्वारा पत्रकारों, एक न्यूज पोर्टल संस्थापक और एक विपक्षी सांसद और अन्य पर छापे और गिरफ्तारियां सुर्खियों में रहीं, विपक्षी इसको केंद्रीय सरकार की कथित हताशा भरी कार्रवाई का चिन्ह बता रहे हैं ताकि गांधी जयंती के दिन बिहार में जाति-आधारित जनगणना सर्वे का परिणाम जारी करने से पैदा हुई स्थिति का तोड़ निकालने के लिए समय पा सके। सरकार घबराई हुई है या नहीं, लेकिन यह सर्वे जरूर विपक्ष द्वारा राजनीतिक बढ़त पाने का नया प्रयास है और इसको 2024 के चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाना चाहता है और भाजपा को मजबूर करना कि या तो इसको स्वीकार करे या प्रतिक्रिया करके घाटा सहे। लेकिन क्या यह कारगर होगा? क्या यह मुद्दा मोदी के विजय रथ को रोककर पराजित कर पाएगा?
चुनावी विफलता सहन करने वाले विपक्ष के लिए 30 साल पहले जातीय पहचान की राजनीति का टोटका संकटमोचक बना था, क्योंकि उस वक्त तक भी गंगा के मैदानी क्षेत्र में सामंतवादी ढांचा कमोबेश यथावत था और कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व इन सामंतों का विस्तार भर था। इस सामंतशाही ने भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में अधिसंख्य वर्ग की सामाजिक-आर्थिक तरक्की की संभावनाओं को कुचल रखा था और वे दिल्ली में रिक्शा खींचने या पंजाब के खेतों में खटने या गुजरात की फैक्टरियों में मजदूरी करने को मजबूर थे, इस व्यवस्था को तोड़ना उस वक्त की ऐतिहासिक आवश्यकता थी। लेकिन यह दौर 30 साल पहले का था और उसके बाद से गंगा के मैदानी क्षेत्र में ब्राह्मणों का राज जाता रहा।
यह होना, दक्षिण भारत में पहले हो चुके सामाजिक बदलावों का विस्तार भर था। जहां पर सत्ता सक्षम वर्ग के हाथों से निकलकर अपेक्षाकृत वंचित किंतु बहुसंख्यक वर्ग के पास चली गई थी। दक्षिणी और उत्तरी भारत के इन प्रयोगों के बीच बड़ा अंतर था कि बिहार और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक गिनती रखने वाली यादव जाति मुख्य लाभार्थी बनकर उभरी। दक्षिण में, बहुसंख्या रखने वाली जातियों को सशक्त करके सामाजिक बदलाव लाने का वाहक कोई एक दल या संगठन बना, लेकिन इसने हाशिये पर आती जातियों को भी सवर्ण-विरोधी या सीधा कहें, तो ब्राह्मण विरोधी लहर पर सवार होने का मौका दिया। फिलहाल, तमिलनाडु में ब्राह्मण-विरोधी नारा द्रविड़ राजनीति के प्रथम परिवार के लिए, जो खुद गिनती के मुताबिक बहुसंख्यक जाति से नहीं है, ताकत पर अपनी पकड़ बनाए रखने में सहायक है।
जाहिर है, जाति रूपी पहिए की संरचना, सभी जातियों की तीलियों के बिना, अधूरी रहेगी। तथ्य है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह ‘नया महान विचार’ प्रतिनिधित्व के फार्मूले पर खुद बिहार में उलटा पड़ जाएगा क्योंकि सर्वे के अनुसार नीतीश कुमार की कुर्मी जाति सूबे की कुल आबादी में महज 2.1 फीसदी है। इस तरह, ‘जितनी आबादी उतना हक’ वाले सिद्धांत के मुताबिक मुख्यमंत्री का पद 14.26 प्रतिशत संख्या रखने वाले यादवों का हक है। इसलिए तेजस्वी यादव को तुरंत तरक्की देकर मुख्यमंत्री बनाया जाए और नीतीश कुमार स्वयं उप-मुख्यमंत्री भी नहीं रह सकते, क्योंकि अन्य जातियों की जनसंख्या कुर्मियों से अधिक है। बहस की खातिर, यदि मान भी लिया जाए कि मतदाता अपना वोट विशुद्ध जाति के आधार पर न देकर,बृहद श्रेणी को यानी सामान्य वर्ग, पिछड़ी जाति, अति-पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति इत्यादि के आधार पर दे, तब भी नीतीश कुमार का मौका नहीं बनेगा क्योंकि वे सबसे बड़े समूह से यानी अति-पिछड़ा वर्ग से नहीं हैं।
राजनीतिक ढोंग से सामाजिक आदर्शवाद नहीं निकल सकता। जाति-आधारित जनगणना तब कारगर मानी जाए यदि नीतीश कुमार इस्तीफा दें और सत्ता की बागडोर सबसे अधिक गिनती वाले अति पिछड़ा वर्ग या यादव को सौंप दें। यह क्या बात हुई कि आप जाति-आधारित जनगणना तो करवा लें लेकिन खुद सत्ता में रहते हुए इस पर अमल न करें। यह विरोधाभास भारत में प्रत्येक उस पिछड़ी जाति के नेता को सताएगा, जो गला फाड़कर राष्ट्रीय स्तर पर जाति-जनगणना करवाने की मांग कर रहा है। उदाहरणार्थ, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को सामाजिक उत्थान का अलम्बदार वाली यदि अपनी साख बचानी हो तो कुर्सी किसी वनियार या थेवर या गौंदर या बहु-संख्यक जाति के नेता को सौंपनी पड़ेगी। यदि आपकी अपनी जाति के लोग भी ब्राह्मणों जितनी कम संख्या में हैं, तब जाति-आधारित जनगणना का औजार ब्राह्मण विरोधी प्रचार में प्रभावशाली कैसे हो सकता है।
यदि सत्ता में हिस्सा विशुद्ध रूप से जन्म-जाति से तय होने लगे, तब नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बनने का हक ब्राह्मण (3.65 प्रतिशत) से या राजपूत (3.45 फीसदी) से भी कम है। कांग्रेस के मामले में तो यह और भी संगीन हो जाता है। यदि कांग्रेस ‘जितनी आबादी उतना हक’ वाले नारे पर अमल करे, तब तो पहले ‘गांधी परिवार’ को तजना पड़ेगा, जो शहरी भारत के अलावा किसी जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करता। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी गिनती के हिसाब से बहुसंख्यक यानी अन्य पिछड़ा वर्ग से न होकर अपेक्षाकृत कम जनसंख्या वाली अनुसूचित जाति से आते हैं। कांग्रेस का सबसे अधिक प्रतिनिधि चेहरा यानी जयराम रमेश चूंकि ब्राह्मण हैं, सो उनका कोई मौका नहीं बनता। यही बात कांग्रेस पार्टी के तमाम महत्वपूर्ण महासचिवों और खजांची पर लागू है।
पिछड़ी जाति की राजनीति करने के दो उद्देश्य हो सकते हैं– सबसे अधिक संख्या रखने वाली किसी एक जाति के लिए सत्ता हथियाना या फिर भाजपा को पुरानी सामंतशाही और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रतीक बताकर, हमला करना। और दोनों ही पैंतरे आजमाए जा चुके हैं। एक में, बिहार-उत्तर प्रदेश-तमिलनाडु-अन्य सूबों में, सत्ता एक पारिवारिक धंधा बन चुकी है और यह चाल अब उतनी प्रभावशाली नहीं रही। इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि संघ परिवार ने कांग्रेस या वामदलों की अपेक्षा सोशल इंजीनियरिंग को बतौर राजनीतिक खेल कहीं अच्छे तरीके से अपनाया है। वहीं मोदी के रूप में पिछड़ी जाति का चेहरा आगे करने वाला उसका उदाहरण, विपक्ष द्वारा पेश किसी अन्य पर भारी बैठता हैै।
जिस किसी को इस पुराने बिहारी फार्मूले की प्रभावशीलता पर यकीन है, कम-से-कम पहले पंजाब में असफल हुए प्रयोग को याद कर लें, जब राज्य में सबसे अधिक गिनती रखने वाले जातीय वर्ग से संबंधित चरणजीत सिंह चन्नी एक साथ दो चुनाव क्षेत्रों से हार गए, क्योंकि लोगों को बदलाव चाहिए था न कि जाति। जब जातीय पहचान की राजनीति वाला नारा खुद दोहरे मानकों से लबरेज हो, तो उसमें प्रतिगामी मौकापरस्ती की बू आती है।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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