संघर्ष की तपिश से निखार
कृष्णलता यादव
पुस्तक : ‘बाल्य-घर’ से ‘नेक सदन’ तक लेखक : अशोक जैन प्रकाशक : अमोघ प्रकाशन, गुरुग्राम पृष्ठ : 275 मूल्य : रु. 250.
कृतिकार-साहित्यकार अशोक जैन ने बिना किसी कल्पना को समाहित किए, सहज भाव से अपने 45 वर्षों की दैनिक कार्यविधि को लिखा है। लेखक के शब्दों में, ‘मेरे मन में यह भाव था कि कोई दूसरा आपकी संघर्ष-गाथा में रुचि क्यों ले? क्यों वह आपकी व्यथा-कथा और हौसले का भागीदार बने? सम्भवत: मेरे संघर्ष से पाठकों को भी हौसला मिले। इसे एक बालक की संघर्षमय यात्रा के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।’
लेखक ने अपनी वंशावली, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शैक्षिक परिवेश, रिश्तों की मधुरता-तिक्तता, और व्यावसायिक जद्दोजहद की घटना-दर-घटना को माला के मनकों की भांति पिरोया है। कई कुभावी-सुभावी किरदारों का जीवंत चित्रण किया गया है।
यूं तो लेखक के जीवन का संघर्ष पिता का साया सिर से उठते ही (दस वर्ष की अवस्था) शुरू हो गया था, पर इससे बड़ा संघर्ष था कैथल (बाल्य घर) से दिल्ली जाना और आजीविका के लिए मारामारी करना—वाशिंग पाउडर निर्माण, ट्यूशन्स, एक कॉलेज की स्थापना, अध्यापन, दृष्टि पत्र का सम्पादन-प्रकाशन, मौलिक लेखन, और विभिन्न प्रकाशकों के यहां व्यावसायिक लेखन। निश्चय ही इस दौरान परिस्थितियां डाल-डाल तो लेखक तथा उनकी जीवनसंगिनी पात-पात रहे, और समय-समय पर काम के ठिकाने और आवास बदलने पड़े। खुशी इस बात की है कि लेखक संघर्ष से हर बार विजयी होकर निकलते रहे और अन्तत: अपनी नेक कमाई के बलबूते, गुरुग्राम में बने ‘नेक सदन’ में प्रवेश पा गये।
बड़ा सन्देश यह है कि जो संघर्ष की भट्ठी में तप गया, वो कुन्दन बन गया। कृति की भाषा सहज-सरल है और मुखपृष्ठ विषयानुरूप है। कई संस्मरण अति रोचक बन पड़े हैं। हालांकि, कहीं-कहीं अनावश्यक विस्तार से बचा जा सकता था।