For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

संगीत के आलाप-सी तरंगित करती कविता

08:44 AM Dec 24, 2023 IST
संगीत के आलाप सी  तरंगित करती कविता
Advertisement

प्रकाश मनु

सच पूछिए तो धर्मवीर भारती की कविता और काव्यभाषा में कुछ ऐसा जादू है, जो पाठकों को बांध लेता है और हमेशा के लिए भारती जी की कविता उनके दिल में घर बना लेती है। इसीलिए बरसों बाद भी भारती जी याद आते हैं, और बार-बार याद आते हैं!

Advertisement

मेरी पीढ़ी के लेखकों का कैशोर्यकाल जिन कवियों को बड़ी स्पृहा के साथ पढ़ते, गुनगुनाते हुए, एक अलग-सी दुनिया बसाने के सपनों के साथ बीता है, उनमें धर्मवीर भारती अव्वल हैं। वे इतने सहज लगते थे कि पढ़ते हुए उनकी कविताएं दिल में उतर जाती थीं और काव्य-भाषा के अनजाने से खुमार के साथ-साथ उनके बिंबों का जादू दिल में नक्श हो जाता था।
खासकर भारती जी की ‘कनुप्रिया’ तो सुकुमार कल्पनाओं के जिस अगम्य मायालोक में ले जाती थी और वहां जिस अद्भुत रस को अपने बहुतेरे कवि मित्रों के साथ-साथ खुद मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस किया, उसे मैं आज तक कोई नाम नहीं दे सका।
जहां तक याद पड़ता है, अज्ञेय के ‘दूसरा सप्तक’ से भारती जी को पहलेपहल जाना था, जहां उनकी कविताओं की भाषा की रवानगी और गहरी रूमानियत कभी मुग्ध तो कभी चकित करती थी। पर फिर हाथ लगी ‘कनुप्रिया’ और सब कुछ बदल गया। ‘कनुप्रिया’ को पढ़ा तो लगा कि मेरे भीतर-बाहर बहुत कुछ बदल-सा गया और भारती जी भी मेरे लिए पहले सरीखे नहीं रह गए।
‘कनुप्रिया’ पढ़ते हुए अठारह-उन्नीस बरस की उस तरुणाई में मैं कैसे बौरा गया था, इसकी अब भी याद है। सोते-जागते उठते-बैठते कनुप्रिया की संवेदना और उसके मुग्ध कर देने वाले अछूते बिंब साथ चलते थे, मन को कोमल, बहुत-बहुत कोमल, मृदुल और उदार बनाते हुए। ‘कनुप्रिया’ कविता पुस्तक नहीं, एक देहधारी अस्तित्व बनकर मेरे सामने थी और घड़ी-घड़ी मेरे तसव्वुरात में दस्तक दे रही थी। यों ‘दूसरा सप्तक’ में शामिल भारती जी की कविताओं में भी एक दुर्वह आकर्षण था, और उनमें रूमानियत का नशा-सा था, पर जब ‘कनुप्रिया’ पढ़ी तो मैं एकदम उनका होकर रह गया था।
और फिर ‘धर्मयुग’ तो था ही, जो हमें पूरी तरह भारती जी से एकरूप ही लगता था। सिर्फ एक पत्रिका नहीं, बल्कि हर अंक एक संपूर्ण कृति सरीखा, जिसमें कविता, कहानियों, लेखों, फीचर आदि-आदि में भारती जी कहीं न होते हुए भी हमें सबसे ज्यादा वही नजर आते थे। हर अंक किसी कसे हुए सितार जैसा, जिसमें एक भी तार ढीला नहीं। कोई पत्रिका कैसे किसी लेखक की मुकम्मल रचना हो सकती है, इसकी ‘धर्मयुग’ जैसी मिसालें हमारे यहां कम हैं।
खासकर जिन दिनों बांग्ला देश के लिए लड़ाई जोरों पर थी, ‘धर्मयुग’ के अंक इतना कुछ लेकर आते थे कि उसके हर अंक का शब्द-शब्द हम पीते थे। लगता था, ‘धर्मयुग’ अब एक पत्रिका नहीं रही, न्याय के लिए लड़ते हुए देश का राष्ट्रदूत हो गया है। और ऐसा, एक नहीं, बहुत बार देखा, जब ‘धर्मयुग’ ने पूरी जनता की लड़ाई, तेवर और भावनात्मक आंधी को आवाज दी और उसे दिशा-दिशा में गुंजाया।
फिर तो ‘सात गीत वर्ष’, ‘ठंडा लोहा’, ‘गुनाहों का देवता’—एक-एक कर उनकी सारी रचनाएं पढ़ीं। तब साहित्य की बहुत ज्यादा समझ तो नहीं थी, पर मन की किसी स्वाभाविक अंतःप्रेरणा से इतना जरूर समझ में आ जाता था कि ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ने में कैसा ही बांध लेने वाला उपन्यास हो, पर वह ‘कनुप्रिया’ सरीखी बड़ी रचना नहीं है, जिसमें कविता प्रेम, अध्यात्म—सभी एकमेक हो जाते हैं और यह सब किसी शास्त्रीय संगीत के आलाप की तरह मन में तरंगित हो उठता है।
‘कनुप्रिया’ का पहला गीत ही पार्थिव से अपार्थिव की ओर उड़ चलने के लिए पंख दे देता है। यहां राधा के अशोक-वृक्ष से कहे गए शब्द हैं, जो मानो अशोक से नहीं, खुद से ही कहे जा रहे हों। और यहां अशोक-वृक्ष से जुड़ी एक कौतुक भरी कल्पना सामने आती है कि किसी सुंदर युवती के चरणों के आघात से यह वृक्ष एकाएक पुष्पित हो उठता है।
लेकिन आगे चलकर विदग्ध राधा का एक सवाल ऐसा है, जो इतिहास के उदात्त कथानकों और महा चरित्रों के आभामंडल के आगे जरूर एक अनुत्तरित सवाल की तरह खड़ा रहेगा, ‘सुनो कनु, सुनो/ क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए/ लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के/ अलंघ्य अंतराल में?’ सच तो यह है कि ‘कनुप्रिया’ में ऐसे बहुत क्षण हैं, जहां कविता मानो एक महाकाश हो जाती है। यही दूर तक व्याप्ति भारती जी को अपने समय के दूसरे कवियों से अलग, अद्वितीय और कहीं ज्यादा स्वीकार्य बनाती है।
***
इसी तरह भारती जी के ‘सात गीत वर्ष’ के गीतों में देह की मांसलता की जगह प्रेम एक अचरज की तरह है, जिसे शायद ठीक-ठीक कभी नहीं समझा जा सकता। साथ ही यहां ऐसे अद्भुत बिंब नजर आने लगते हैं, जो नई कविता में बहुत चर्चित और बार-बार उद्धृत हुए। ‘ठंडा लोहा’ संकलन का मिजाज भी इससे काफी मिलता-जुलता सा है। यह भारती जी के कवि का चरमोत्कर्ष ही है कि वे तप्त माथे पर रखे अधरों को इस तरह रूपायित करते हैं, ‘बांसुरी रक्खी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर!’ कहना न होगा कि यह प्रेम का देह से परे जाकर सृष्टि के कण-कण में गूंजता संगीत बन जाना है।
सन‍् 1993 में ‘धर्मयुग’ से मुक्त होने के बाद भारती जी का नया संकलन ‘सपना अभी भी’ सामने आया। कोई चौंतीस बरस बाद। इसी पर उन्हें 1994 में व्यास सम्मान से विभूषित किया गया। ‘सपना अभी भी’ में कुछ कविताएं भारती जी की पुरानी रंगत यानी ‘हलके जरतारी’ मिजाज की हैं। पर इनमें ‘दीदी के धूल भरे पांव’ सरीखी कविता भी है, जो सहज ही मन को पकड़ लेती है। इसी तरह मोहन राकेश पर लिखी गई ‘खाली हाथ तुम्हारे लिए’ एक उदास कविता है, जो धीरे से दिल में उतर जाती है। दूसरी ओर, आपातकाल पर लिखी गई भारती जी की ‘मुनादी’ तानाशाही को ललकारती हुई, जबरदस्त आक्रोश की कविता है, जो बड़ी ही व्यंग्यात्मक धार लिए हुए है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement