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दर्द और कसक से उपजी कविता

06:17 AM Jan 24, 2024 IST

अरुण अर्णव खरे

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बचपन में पढ़ी ये पंक्तियां पिछले कुछ दिन से शिद्दत से याद आ रही थीं- ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।’ ये कविता का असर है या दर्द का, नहीं बता सकता लेकिन किसी काम में मन नहीं लग रहा है। फिलहाल अपने बाएं गाल पर हाथ रख कर बिस्तर पर पड़े-पड़े सोच रहा हूं कि वह आह कैसी रही होगी जिससे कविता निकल कर बहने लगी होगी। सोचते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंच गया हूं कि वह आह दांत के दर्द वाली तो कदापि नहीं रही होगी। दो दिन से इस आह से कविता बहने की उम्मीद में डॉक्टर को भी दिखाने नहीं गया था। इसका असर यह हुआ कि दर्द बढ़ने के साथ ही आह निकलने की फ्रीक्वेंसी भी बढ़ गई लेकिन कविता की एक पंक्ति नहीं बही। आह, कराह में बदलने लगी। इसी के साथ मेरे कवि बनने के अरमान तिरोहित होने लगे। मुझे विश्वास हो चला कि दांत के दर्द से निकली आह कवि बनने के लिए मुफ़ीद नहीं है।
दर्द बर्दाश्त से बाहर होने लगा तो हारकर डॉक्टर के दर पर मत्था टेकने जाना पड़ा। लोग कितना ही कहें कि डॉक्टर देवतुल्य होते हैं लेकिन उनकी फीस देखकर कभी मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं हुआ। वाकई जब दर्द विदेश में उठा हो और डॉक्टर की फीस डॉलर में चुकाना हो तो सारे देवता याद आ जाना लाजिमी है। देवता याद आएंगे तो मत्था टेकना भी जरूरी है। हुआ भी यही। डॉक्टर की असिस्टेंट ने सबसे पहले ऊपरी जबड़े के तीन-तीन एक्सरे निकाले फिर मुझसे मुखातिब होकर बोली- ‘तेरह नंबर का दांत टूट गया है जिस कारण बैक्टीरिया इंफेक्शन बहुत बढ़ गया है। इसे तुरंत निकालना पड़ेगा।’
दांतों के भी नंबर होते हैं, पहली बार पता लगा। डरते-डरते उस असिस्टेंट नाम की मोहतरमा से पूछा- ‘कितना खर्चा आएगा।’ उसने मेरी निरीह और सहमी मुख-मुद्रा को नजरअंदाज करते हुए पूरी पेशेवर निर्ममता से उत्तर दिया- ‘सात सौ से नौ सौ डॉलर। फाइनल फिगर डॉक्टर बताएंगे।’ मैंने मन ही मन विदेश गए आम भारतीय नागरिक की तरह सात सौ का अस्सी से गुणा किया हालांकि मुझे 82 या 83 से करना चाहिए था।
बहरहाल इसी बीच डॉक्टर ने चैंबर में प्रवेश किया। आते ही उचाट-सी दृष्टि एक्स-रे पर डाली और बोले- ‘इंफेक्शन आंखों को जोड़ने वाले ब्लड वेसल तक पहुंच गया है। तुरंत दांत नहीं निकलवाया तो आंखों को भी नुकसान पहुंच सकता है।’ डॉक्टर का यह डरावना वक्तव्य आने से पहले ही मैं सात सौ में अस्सी का गुणा कर चुका था। गुणनफल का भान होते ही दांत के दर्द का अहसास जाता रहा था लेकिन आंखों को नुकसान पहुंचने की बात से दिमाग के तार झनझना उठे थे। डाक्टर ने जैसे ही दांत उखाड़ने का अभियान शुरू किया, आंखों से आंसू छलक आए और दिमाग में किसी पुराने फिल्मी गीत की तर्ज पर एक काव्य पंक्ति कौंध गई- ‘ये दांत दर्द, कब मुझे छोड़ेगा, मेरा गम कब तलक मेरा दिल तोड़ेगा।’
अब लगभग पैंसठ हजार में 13 नंबर का दांत निकलवा कर, आंखों से कविता बह जाने की अनुभूति से गद‍्गद हूं।

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