कविताएं
हेमधर शर्मा
दु:ख में सुख
जब भी मुझ पर दु:ख आता है
मैं खुद से ज्यादा दु:खी व्यक्ति से
तुलना करने लगता हूं
अपना दु:ख मुझको
हल्का लगने लगता है।
सुखी व्यक्ति मैं
सब लोगों को लगता हूं
है नहीं किसी को पता
कि मन ही मन में मैं
कितना ज्यादा दु:ख सहता हूं
टूटे चाहे जिस पर भी कष्टों का पहाड़
सहने में होती मेरी भी हिस्सेदारी
बस साथ मात्र होने से मेरे
दु:खी व्यक्ति का दु:ख
हल्का हो जाता है
अद्भुत है इससे मेरे भी
व्यक्तिगत दु:खों का कोटा
कम हो जाता है।
दुनिया में सबको सुखी दिखाई पड़ता हूं
दुनियाभर का दु:ख सहता हूं
दु:ख लेकिन मुझको
सुख जैसा ही लगता है!
जिजीविषा
बाबा मेरे थे अस्सी के
जब गिरे, नहीं उठ पाये
फिर वे बिस्तर से अंतिम क्षण तक
उम्मीद उन्हें पर बनी रही
फिर से अच्छे हो जायेंगे
फिर घूम सकेंगे
अपनी उसी साइकिल से!
आजी को लगता था
अपने अंतिम दिन तक
बस किसी तरह हो जाये दूर
यह जलन हाथ और पैरों की
वे फिर से कर सकती हैं
सारा काम पुरानी फुर्ती से।
नानी तो मेरी
शतक पूर्ति के बाद अभी भी
जिजीविषा के बल पर अपनी
जाकर मुख के पास मौत के,
कई बार लौट आई है
यह कैसा है दुर्दम्य हौसला
अंतिम क्षण तक जो जीवन के
उम्मीद बंधाता रहता है!
जीवन का शायद
सार यही है जिजीविषा
यह नहीं अगर हो तो मानव
जीते जी भी मुर्दा जैसा बन सकता है
इसके बल पर ही
लेकिन अंतिम क्षण तक भी
वह जिंदादिल रह सकता है!