कविताएं
स्वाति श्वेता
पिता
(1)
कर्ज में डूबे पिता
दिन और रात के बीच
तकाजों को
पीड़ा को
अंत: संघर्ष को
संस्कारों को
सूखे सपनों को
और
मौन को
ढोते हैं ।
न जाने वे कब सोते हैं...
पिता के अंदर
जीवन की दुपहरी का
होता है एक संसार।
...जहां हैं
आड़ी-तिरछी नसों की
छायाहीन पगडंडियां।
जिस पर
कहां कोई चल पाया
आज तक...
पिता के अंदर
स्वर और व्यंजन से परे
बहुत कुछ रहता घटता
गीले शीशे-सा मटमैला।
...भीतर उसके
पर कहां कोई झांक पाया...
कर्ज में डूबे पिता
परिवार के लिए हरापन छोड़
सूखी घास बनते रहे।
अपनी पसलियों से
सींचते रहे परिवार को,
अंधेरे के दृश्यों में
खोने से पहले तक...
(2)
जीवन की कड़ी धूप में
बादल का घना टुकड़ा बन
हर बार बरस कर
जलने से बचाया
वक्त की चोट से
जब-जब हिले कब्जे
दर्द को दबा
आंसू को छिपा
गमों की भीड़ में
हंसना सिखाया
जब भी शब्दों ने
उतारे अपने रोगन
खाली शब्दों को
अपने रंग में रंगना सिखाया
यादों की गीली मिट्टी में
अपनेपन के बीजों को
हर मौसम में बोना सिखाया
उन खामोश नज़रों ने
बहुत कुछ दिखाया....
(3)
आंखों के खेतों में
जब खुशियों की फसलें
उगती थीं
जेब रहती थी खाली।
जेब अब भरी है
पर खेत बंजर पड़ चुके हैं...