कविताएं
सुभाष रस्तोगी
हांक
ठीक है—
इन दिनों चक्कर आते हैं/मुझे
चलते हुए पांव डगमगाते हैं
पर सिर्फ इसीलिए बैठ जाऊं मैं
प्रत्येक गलत के खिलाफ हांक
न लगाऊं
यह कैसे हो सकता है?
इतिहास साक्षी है कि
प्रत्येक भयावह से भयावह दौर में
जब एक आवाज बुलंद होती है
तो सहस्रों-सहस्रों आवाज़ें
स्वत: बुलंद हो उठती हैं
राजा के खिलाफ
इसलिए हांक लगाना
अंधेरे में एक कंदील जलाना
जारी रखूंगा ही
नतीजा चाहे कुछ भी हो
बैठूंगा नहीं
हालात चाहे कितने विकट हों
हर आततायी के खिलाफ
हांक लगाऊंगा!
हर हाल में हांक लगाऊंगा।
औरतें
औरतें कभी औरत नहीं
बनना चाहती?
क्योंकि वह खुश रहती हैं
मां बनकर,
वे जानती हैं मां ही तो है
एक स्त्री की पहचान।
औरतें कभी औरत नहीं
बनना चाहती?
क्योंकि उन्हें पता है
बहन बनकर ही
माई का प्रेम और मातृत्व
पाया जा सकता है।
औरतें कभी औरत नहीं
बनना चाहती?
वे समझती हैं कि
बेटी ही तो है
दो घरों को जोड़ने और
समाज बनाने वाली।
औरतें कभी औरत नहीं
बनना चाहती?
पर मैं औरत ही
बनना चाहती हूं
मैं जानती हूं,
मां-बहन, बेटी-पत्नी
सभी रूप उस स्त्री के हैं
जो कहलाती है नारी शक्ति,
जिसके हाथों में
वो शक्ति है जो परिवार
को परिवार और नारी को
उसके नारीत्व तक
पहुंचाने के लिए
समर्थ बनाती है।
मीनू गुप्ता