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विसंगतियों से जूझतीअसरदार कविताएं

06:53 AM Jun 09, 2024 IST
विसंगतियों से जूझतीअसरदार कविताएं
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योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
कवि सुभाष रस्तोगी का नवीनतम कविता संग्रह ‘अंधेरे में कंदील’ अपनी लंबी और छोटी पचपन कविताओं में आज के जीवन का जैसे एक्सरे उतार देते हैं। यद्यपि स्वयं सुभाष जी लिखते हैं, ‘इस नव्यतम कविता-संग्रह में कहीं-कहीं जीवन की सांध्य-वेला के रंग अवश्य हैं, लेकिन इनमें ज्यादातर अपने समकाल की असंगतियां-विसंगतियां अधिक उजागर हुई हैं।’
कवि के इस कथन को इस कविता-संग्रह की सबसे पहली कविता ‘हमाम में सब नंगे’ पूरी तरह सच सिद्ध कर देती है। उनके शब्दों में पूरे देश का सुलगता हुआ सवाल है :-
‘मैंने किताबों में पढ़ा था/ उन क्रांतिकारियों को भी/ अथाह देश-प्रेम था/ जिन्होंने हंसते-हंसते/ देश की आज़ादी के लिए/ अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी थी
और उनका नाम-/ इतिहास में-/ आदि-आदि में भी दर्ज़ नहीं!’
इस संग्रह की कविता ‘किसी दफ्तर में एक शोक-सभा’ हमारे समाज की विद्रूपता को उजागर कर देती है और हम कवि के व्यंग्य की धार के लिए अनायास ही ‘वाह’ कह उठते हैं।
रस्तोगी की कविताओं के बारे में नरेश कुमार ‘उदास’ की टिप्पणी स्टीक है, ‘भाषा की जो तरलता रस्तोगी की कविताओं में दिखाई देती है, वह इधर क्रमशः दुर्लभ होती जा रही है। बेहद आत्मीय भाषा में अपनी संवेदना और अनुभूति को व्यक्त करने की शक्ति उनकी कविता को विशिष्टता तो प्रदान करती ही है, विरल भी है।’
उनकी ‘स्त्री’ कविता उक्त कथन पर खरी उतरती हुई उत्कृष्ट कविता है। कवि की भाषा जैसे नदी का प्रवाह लिए चलती है :-‘घर के भीतर/ एक और घर है/ और वह घर नाचता है/ एक औरत के इशारे पर/औरत बसती है/ पूरे घर में/ और घर बसता है/ औरत में।’
कवि की एक और कविता ‘दौलेशाह के चूहे’ मेरी दृष्टि में अपने पैने व्यंग्य के कारण स्मरणीय बन गई है, क्योंकि इस कविता में हमारा समकाल सजीव हो कर हमारे सामने आता है :-
‘शहर में-/ दौलेशाह के चूहे आए हुए हैं/ दौलेशाह के चूहे-/ शब्दों को कुतरते हैं/ खास तौर से.../ प्रेम और सद्भाव के शब्दों को/ और प्रेम की कविताओं को तो/ ढूंढ़-ढूंढ़ कर कुतरते हैं।’
और, अंत में कवि सुभाष की बहुत छोटी-सी कविता ‘बहुत याद आई मां की’ इसलिए उद्धृत कर रहा हूं कि इसमें कवि का ‘दिल धड़क’ रहा है :-
‘जैसे ही उठा/ आखिरी कौर तोड़ कर/ रोटी का/ बहुत याद आई मां की/ मां होती तो कहती बहुत दुबला गए हो मुन्ना/ खुराक बड़ी/ कम हो गई है तुम्हारी/ कम-से-कम/ तवे से उतरी/ गर्मागर्म/ एक चपाती तो ले लो/ और!’
पुस्तक : अंधेरे में कंदील लेखक : सुभाष रस्तोगी प्रकाशक : उमा पब्लिकेशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 140 मूल्य : रु. 450.

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