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आत्मीय संवाद स्थापित करती कविताएं

08:06 AM Dec 03, 2023 IST
आत्मीय संवाद स्थापित करती कविताएं
पुस्तक : उम्मीद की हथेलियां लेखक : बलवेन्द्र सिंह प्रकाशक : बिम्ब प्रतिबिंब प्रकाशन, फगवाड़ा, पंजाब पृष्ठ : 148 मूल्य : रु. 300.
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सुभाष रस्तोगी

बलवेन्द्र सिंह स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग डीएवी कॉलेज, जालन्धर में अध्यापनरत हैं और अनुवाद, पत्रकारिता व अध्यापन उनके अनुभव के क्षेत्र हैं। ‘अभी समय है’ (कविता संग्रह), ‘रावी के इधर- उधर’, ‘नए प्रतिमान’ के वे सह‌योगी कवि हैं। ‘धुंध में डूबा शहर’, ‘पढ़े जाते हुए शब्द’ उनकी संपादित कृतियां हैं तथा ‘पंजाब की आधुनिक हिन्दी कविता : सर्जन का समकाल’ लेखक का शीघ्र प्रकाशय ग्रंथ है।
बलवेन्द्र सिंह के सद्य: प्रकाशित कविता-संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियां’ में कुल 59 कविताएं व 25 ग़ज़लें संगृहीत हैं जो अपने समवेत पाठ में पाठक की चेतना को गहरे में उद्वेलित करती हैं। संग्रह की पहली ही कविता ‘बयान की धार’ पाठक की चेतना पर हथौड़े की तरह बजती है। इस कविता का संवेदना का ताप पाठक को हतप्रभ कर देता है। देखें यह पंक्तियां जो काबिलेगौर हैं : ‘होना तो है ही हमें/ जिन्दगी के तमाम झगड़ों- झमेलों में/ सारे हंसी-ठट्‌ठे के बीच/ प्यार और मनुहार के रहते/ होना तो है ही हमें/ सदियों से स्थगित होती चीख को/ बयान की धार देते हुए...।’
दरअसल बलवेन्द्र सिंह के इस संग्रह की सारी कविताएं ‘सदियों से स्थगित होती चीख को/ बयान की धार’ देने के उपक्रम के रूप में ही सामने आई है। मां की ‘पीराई का महाख्यान’ इस दर्जे की कहन इधर की कविता में कम ही दर्ज हुई है। मां की पीड़ा के महाख्यान इस दर्जे के साब्ध कर देने वाले दृश्य इधर की हिन्दी कविता में कम ही दिखाई देते हैं। देखें यह पंक्तियां जो विशेष तवज्जो चाहती हैं : ‘सिर लिए अधपके बालों की खेती/ जो रही फूंकती गृहस्थी का चूल्हा/ रिश्तों के घुर्रे डालती रही नीझ लगाकर/ लाज पर सीवन देते हुए/ मोतियाबिंद को करती गई शर्मसार/ उन अंखियों की पीराई का/ हुआ नहीं कारगर उपाय।’
‘कंडे थापती औरत’, ‘अपने यहां हाल-चाल’, ‘पुल’, ‘प्यार भरी सृष्टि’, ‘मुझे खोजना’, ‘झड़बेरी, ‘मां का जाना’, ‘रातभर चीटियां’, ‘उम्मीद की हथेलियां’ और ‘जीवन-संगीत’ इस संग्रह की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण कविताएं हैं जिनकी अनुगूंज पाठक को देर तक मथती रहती है। ‘मुझे खोजना’ शीर्षक कविता के कई अर्थगत स्तर हैं। ऐसा ही एक अर्थगत स्तर है कवि की जिजीविषा का वह दृश्य जो हमारे चित से सहजता से नहीं उतर पाता। देखें यह दृश्य ‘चला जाऊंगा कहीं भी देर सबेर/ ठाकुर के सिरहाने होऊं खड़ा/ या उमर की ढलान पर लुढ़कते हुए/ रग्घू मजूर के पैताने बैठूं/ दिख ही पड़ूंगा कहीं भी/ फूटते कल्लों में उछाह भरे चैत-बैसाख कि/ धान-रोपाई के गीतों में/ लहक-लहक जाऊंगा।’ मां कवि को बार-बार हांट करती है।
बलवेन्द्र सिंह के सद्य: प्रकाशित कविता-संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियां’ के दूसरे खंड में 25 ग़ज़लें भी संगृहीत हैं। उनकी कविताओं की तरह ज्यादातर ग़ज़लों की जमीन भी खड़ंक हैं लेकिन इनके नेपथ्य से सबके शुभ की कामना करते हुए शुभांशसा भी फूटती दिखाई देती है।
समग्रत: बलवेन्द्र सिंह के प्रथम प्रकाशित कविता-संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियां’ की कविताएं और ग़ज़लें पाठकों से एक आत्मीय संवाद स्थापित कर लेती हैं। भाषा इन कविताओं की सबसे बड़ी शक्ति है।

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