कविता
हेमधर शर्मा
हारेगा मरुस्थल
अच्छा लगता है मुझको भी
रहना अच्छे लोगों के ही बीच
जहां अच्छाई का बदला
मिलता अच्छाई से
सपने मैं देखा करता हूं
ऐसे समाज के ही जिसमें
द्विगुणित हो-होकर अच्छाई
ऐसी मिसाल बन जाये,
रहे जो याद हमेशा की खातिर।
जाने पर क्यों मैं
खिंचा चला आता हरदम
ऐसे लोगों के बीच जिन्हें
अहसान फरामोशी की आदत है
अच्छाई कोई करता तो, उनको
लगता वह डर के मारे करता है
जो इतने कांटेदार बन चुके
जाये कोई नजदीक अगर
तो उसको घायल करते हैैं।
होकर भी मैं क्षत-विक्षत,
भलाई उन लोगों की करता हूं
फोड़ता निरंतर पत्थर
पानी लाने को,
रखता मन में उम्मीद
मरुस्थल हारेगा
मेरे जीवन रस के आगे
बंजर जमीन पर भी सुंदर उपवन
मैं कर लूंगा तैयार कभी न कभी।
जाने बैठा है कौन
मेरे भीतर जो मुझको
रुकने देता नहीं कभी
अच्छे लोगों के बीच
काटने देता मुझको
फसल नहीं उर्वर जमीन पर
खिंचा चला आता बरबस
बंजर जमीन बंजर लोगों के बीच
बहाता खून-पसीना अपना,
उर्वरता लाने की खातिर
लेकिन आते ही हरियाली
चल पड़ता हूं फिर से
आगे की ओर
खोज में
नये मरुस्थल की!