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बरसात में घर के लोग

07:53 AM Jul 21, 2024 IST
सभी चित्रांकन : संदीप जोशी
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सुजाता भारी गले से कहती है, ‘चिंता न करूं तो और क्या करूं? बच्चे नहीं हो, जानती हूं, पर बचपना तो है तुममें। यह जो भीगी हवा लगा आए, अब सारी रात खांसोगे। कह रहे हो भीगे नहीं परंतु तुम्हारे सारे बाल तो गीले हैं। लाओ, सुखा देती हूं।’ सुजाता बेटे के सिर पर हाथ रखना चाहती थी परंतु सुमंत ने उसे यह कहते हुए परे धकेल दिया, ‘हद हो गई।’ स्वयं ही तौलिये से बाल सुखाते हुए कपड़े बदलकर वह बिस्तर पर लेट गया। सुजाता स्तब्ध देखती रह गई।

आशापूर्णा देवी
एक बड़े से आईने के सामने खड़े होकर सुमंत एक छोटी-सी कंघी लेकर जोरों से अपने बाल संवार रहा था। उसके सिर पर घने लंबे बाल हैं जिन पर यह छोटी कंघी असफल सिद्ध हो रही थी। बड़ी कोशिशों के बावजूद उसके लंबे बाल संवर नहीं पा रहे थे।
ठीक उसी समय उसकी मां सुजाता मोमबत्ती के साथ कमरे में आई। बेटे की ओर देखते ही चिल्ला उठी, ‘क्या हो रहा है? कंघी टूट नहीं जाएगी? तुम्हारे इन बालों पर यह कंघी?’
सुमंत पूर्ववत कंघी चलाता हुआ बोला, ‘तुम्हारी कंघी नहीं ली है मैंने।’
सुजाता ने भवें सिकोड़ते हुए कहा, ‘वाह! खूब मैनर्स सीख रहे हो?’
सुमंत के स्कूल में मैनर्स पर विशेष ध्यान रखा जाता है और इसके लिए सुमंत को प्रमाणपत्र भी मिला है परंतु स्कूल का व्यवहार स्कूल में। उसे घर पर लाने की जरूरत ही क्या है?
अपनी मां से भी अधिक नाक-भौं सिकोड़ते हुए सुमंत ने उसकी ओर देखा। मुंह से एक शब्द नहीं फूटे। फिर से वह उसी काम में लग गया। आजकल ऐसी ही बहादुरी सीख रहा है वह। यह सब ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश करते ही हुआ है। अक्सर मां-बाप की बातों की अवहेलना। यह बहादुरी नहीं तो और क्या है? फिर भी इसके पापा कहते हैं कि तुम साग से मछली मत ढका करो। देख लेना, तुम्हारा यह सुपुत्र एक दिन गुल खिलाकर रहेगा।
ऐसे क्षणों में ‘तुम्हारा पुत्र’ कहने का ही रिवाज है। फिर भी सुजाता इसे बहादुरी का ही नाम दिए जा रही है। नये-नये बड़े होने के सुख में यह भी एक तरह का शौक है। फिर भी बेटे के नाक-भौं सिकोड़ने पर उसके तन-बदन में आग लग गई और मातृ-अधिकार की शक्ति का प्रयोग करते हुए ऊंचे स्वर में पूछने लगी, ‘जा कहां रहे हो तुम?’
सुमंत कंघी को अपनी पैंट की पिछली जेब में डालते हुए बोला, ‘क्यों, कुछ मंगाना है क्या?’
बाजार से कुछ लाने के लिए सुमंत हमेशा तत्पर रहता है। आठ-दस की उम्र से बाजार से कुछ लाने की आदत सुजाता ने ही डाल रखी है। कठिन स्वर में वह कहती है, ‘नहीं, कुछ नहीं लाना है। मुझे बताना जरूरी नहीं है क्या?’
‘क्या?’
‘यही कि शाम की इस लोडशेडिंग में जा कहां रहे हो?’
‘क्यों? मैं कोई जेल का कैदी हूं जो एक कदम बाहर निकालने पर भी बताना पड़ेगा।’
‘वाह बेटे, अच्छी बोलचाल सीख रहे हो। तुम्हारे पापा आज भी कहीं बाहर जाते हैं तो क्या बताकर नहीं जाते?’
‘स्लेव मेंटलिटी है।’ कहकर सुमंत तेज कदमों से घर की सीढ़ियां उतरने लगा परंतु मां जैसी बेहया भी कोई हो सकती है? वह भी साथ-साथ दो-चार सीढ़ियां उतर गई। तेज स्वर में कहा, ‘अधिक देर मत करना। आकाश की ओर देखो। तेज बारिश होने वाली है।’
सुजाता को इसका कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। लौटकर बरामदे से रास्ते की ओर देखती है। बेटा तेज कदमों से चला जा रहा था। अभी भी उसे बच्चा समझती है, वरना पीछे से देखने की आवश्यकता ही क्या थी?
आसमान सचमुच बादलों से ढका जा रहा था। लोडशेडिंग जारी था। बिजली अभी तक नहीं आई थी। फिर भी अपने बेटे की भंगिमा देखकर उसने अनुमान लगाया कि वह अपने बाप पर गया है। इसी उम्र में अपने पापा की तरह इतना लंबा हो चुका है मानो पूरी दीर्घता उसमें आ गई हो। अभी कुछ ही महीने पहले तो उसने दसवीं पास की है। बहुत तेजी से बड़ा हो गया है उसका बेटा। कमरे में आकर दरवाजे-खिड़कियां बंद करते-करते वह सोचने लगी, बाप जैसी आकृति तो मिल रही है परंतु प्रकृति? वह तो नहीं मिल रही। श्रीमंत कितने शांत, सौम्य और सरल हैं। किसी से ऊंची आवाज में बोलना तो मानो जानते ही नहीं। सिर्फ मां को ही क्यों, बेटा बाप को भी ‘डॉन्ट केयर’ के रूप में लेकर मजे लेता है। कभी-कभी सुजाता को लगता है कि कहीं गुस्से में श्रीमंत बेटे को एक करारा थप्पड़ न जड़ दे, परंतु ऐसी भयंकर घटना कभी नहीं हुई। अधिक हुआ तो मन ही मन बुड़बुड़ाकर रह जाते हैं, ‘बहुत अच्छे। शिक्षा-दीक्षा अच्छी ही चल रही है। इंग्लिश मीडियम स्कूल जो ठहरा।’
यह व्यंग्य दरअसल सुजाता के लिए होता है। चार साल की उम्र में मोहल्ले के उसी स्कूल में बेटे का दाखिला कराया था, जहां से श्रीमंत स्वयं पढ़कर बड़े हुए हैं। इस स्कूल में सुमंत के दाखिले पर सुजाता ने कई बार अपनी आपत्ति जतायी थी परंतु सास ने उसे चुप करा दिया था, ‘क्या मोहल्ले के इस स्कूल में पढ़कर श्रीमंत अमानुष हो गया है? तुम्हारा बेटा मेरे बेटे जैसा भी बन जाये तो अपना सौभाग्य समझना बेटी।’
फिर भी दो वर्ष बाद ही सुजाता की इंग्लिश मीडियम की रट के कारण सास को स्वयं कहना पड़ा। ‘कर दे बेटा इसे साहबों के स्कूल में भर्ती। बहूरानी को जब इतना भय सता रहा है कि बांग्ला स्कूल में पढ़ कर बेटा विदेश नहीं जा पाएगा, दिल्ली-मुंबई की नौकरी नहीं मिलेगी। अंततः बाद में तुम्हें ही दोषी ठहराएगी और मुझ पर उसका भविष्य खराब करने का लांछन लगाएगी।’
सास की बातें दुनियावी और कटु हुआ करती थीं। शायद इसी कारण श्रीमंत का स्वभाव इतना शांत है। कहा जाये तो मां की जी-हजूरी में उनका जीवन बीत गया। कुछ ही दिन हुए हैं उनके निधन को। जब सुमंत कुछ बड़ा हुआ तो उसके पिता की मातृभक्ति को लेकर उससे मजाक भी कर लिया करती थी। सुजाता कहती, दादी कह रही है तो मातृभक्त विद्यासागर एक कदम आगे नहीं बढ़ाएंगे। यह सुनकर सुमंत खूब हंसता।
उस पर मां की अस्वस्थता पर उन्हें अस्थिर होता देख चिंता प्रकट करती, ‘किसी के मां-बाप सदा नहीं रहते। दादी के चले जाने पर तुम्हारे पापा का क्या हाल होगा रे?’
परंतु आश्चर्य! सास की मृत्यु से पति बिल्कुल विचलित नहीं हुए, बल्कि पहले से भी कहीं अधिक शांत हो गए। पहले कभी पूजा-पाठ, संध्या, गायत्री के बारे में सोचते तक नहीं थे, अब उस ओर उन्मुख हो गए हैं। निश्चय ही मां के पूजाघर की दुर्दशा उनसे देखी नहीं गई।
शुद्धीकरण के बाद से ही श्रीमंत सुबह-शाम मां की पुरानी रेशमी चादर ओढ़कर तीसरे माले पर स्थित पूजाघर में प्रवेश कर जाते हैं। वहां वे क्या करते हैं और क्या नहीं, सुजाता कभी देखने नहीं जाती परंतु जब वे सुबह पूजाघर से वापस लौटते हैं तो सास की तरह एक छोटा-सा चंदन का टीका उनके माथे पर होता है। नाश्ता करने तक वह टीका मौजूद रहता है परंतु आफिस जाने के पहले वे उसे पोंछ देते हैं।
सुमंत कई बार हंसते हुए कहता है कि देखना पापा एक दिन पूरी तरह चैतन्यभक्त वैष्णव बन जाएंगे।
सुजाता अपने बेटे का समर्थन करती। दूसरा उपाय भी नहीं था। पति को तो कभी अपने वश में नहीं कर पायी। मरने के बाद भी उस परलोक सिधारी सास ने अपने बेटे पर जादू कर रखा है, जबकि वह निहायत गंवार किस्म की थी। मरने के पहले तक अपने विवाहित बेटे को इस कदर डांटती मानो वह बच्चा हो। पति की छोटी बहन खुकु का ससुराल भवानीपुर में है। ढाकुरिया से अधिक दूर नहीं, फिर भी बिना नागा हर हफ्ते उससे मिलने चले जाते हैं। कभी अचानक नहीं जा पाए तो सास अनायास बोल उठती, ‘तुम्हारी एक पितृहीन छोटी बहन भी है। शायद तुम उसे भूलने की कोशिश कर रहे हो मंता?’
और आश्चर्य! श्रीमंत गुस्से में दो बातें सुनाने के बजाय अगले दिन ही बहन की पसंद की गाड़ियाहाट के दुकान की दालमोठ, आम पापड़ और सोनपापड़ी लेकर दौड़ पड़ते उसके पास। मातृभक्ति की पराकाष्ठा में ही शायद अब भी हर हफ्ते खुकु के घर जाना बदस्तूर जारी है। आज भी तो जाते समय कह गए हैं, बहुत संभव है खुकु के घर होकर आऊं। देर होने पर चिंता मत करना।
सुजाता अनायास कह उठी, ‘अभी तो गए थे उस दिन।’ बिना कोई उत्तर दिए वे जूते के फीते बांध हाथ धोकर चले गए। फिर भी उसके अपने बेटे की तरह उन्होंने नाक-भौं नहीं सिकोड़ा।
देर होने पर चिंता न करने के लिए कह गए थे परंतु फिर भी उन्होंने देर नहीं की। ठीक समय पर घर लौट आए। कहा, तेज वर्षा की संभावना बन रही थी, इसलिए नहीं गए। आते ही सास की फटी रेशमी चादर लपेटकर सीधे पूजाघर की सीढ़ियां चढ़ गए। ठीक उसी समय वर्षा शुरू हुई जिसके बरसने का भय अब तक बना हुआ था, परंतु भय भी क्या था यदि सुमंत घर पर होता। घर के लोग यदि बाहर हों तो वर्षा आनंद नहीं देती।
अब जिस कदर बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की तड़क बढ़ती जा रही थी, सुजाता के प्राण सूखते जा रहे थे। मन ही मन कहे जा रही थी, दुष्ट, भाग्यहीन कहीं का! इतना कहा पर एक न सुना। कहां गया है, किस हाल में है, भगवान जाने। दिखने में ही लंबा हुआ है, अक्ल अब भी छोटी है।
अनुपस्थित बेटे को कठघरे में खड़ाकर वह उसे बके जा रही थी। सामने आ जाए तो कहने की हिम्मत नहीं।
वर्षा कम होने का नाम नहीं ले रही थी। इसके विपरित बिजली तड़कने और गिरने का क्रम बढ़ता चला गया। आश्चर्य, पतिदेव निश्चिंत पूजाघर में आराममुद्रा में हैं। तनिक भी चिंता नहीं कि बेटे के साथ कुछ घट सकता है। सुजाता को ऐसा लग रहा था मानो प्रलय आने को है। सोचा, सीधे पूजाघर में जाकर कहे कि तुम मनुष्य हो या पत्थर? परंतु जाना नहीं पड़ा। पति नीचे उतर आए। पूजा का पहरावा उतारकर सूती धोती पहन चाय की मेज पर आकर बोले, ‘बाबू साहब, शायद अभी तक नहीं लौटै?’
सुजाता क्षुब्ध उत्तेजित स्वर में बोल उठी, ‘मैंने कितनी बार कहा कि भीषण बादल हैं, देर मत करना। फिर भी? ऐसी भी क्या अड्डेबाजी। आप तो उसे कुछ नहीं कहते। मां की बातों का असर नहीं होता, पिता की धमकियां ही काम आती हैं।’
‘धमकी?’ श्रीमंत ने चाय का प्याला माथे से लगाते हुए कहा, ‘तुम्हारे इस हीरो बेटे को क्या मैं धमका सकता हूं?’ बिजली लगातार कड़क रही थी। सुजाता उद्विग्न होकर खिड़की खोलने के लिए बढ़ती है। श्रीमंत उसे रोकते हैं, ‘क्या कर रही हो? सारा कमरा पानी से भर जाएगा।’
‘अजीब बेपरवाह हैं आप। बेटा कहां किस दशा में है...?’
‘आश्चर्य! वह पागल तो नहीं जो इस समय रास्ते पर घूम रहा होगा। होगा अपने किसी मित्र के घर। वहीं फंस गया है। इतनी चिंता क्यों कर रही हो?’
यह सुनकर सुजाता को क्रोध आ जाता है। लगता है, किसी मुसीबत में पड़कर भीगता हुआ लौटे, तभी चैन आएगा इस बंदे को।... और यदि न हो तो वह आज अपने बेटे पर हाथ उठाकर देखेगी। इतने छोटे से बच्चे से आखिर मैं क्यों डरूं?... दुःख होगा, यह सोचकर कभी कुछ नहीं कहती उसे। ज्यों-ज्यों रात बढ़ती गई, वर्षा थमती चली गई। बादलों की गड़गड़ाहट भी धीमी पड़ गई। अभी भी बूंदाबांदी मानो अपनी चाल बनाए रखना चाह रही थी।
अंततः सुमंत लौट आया। एक रिक्शे पर बैठकर।
‘कहां थे अब तक?’
‘कहीं नहीं, यहीं ढाकुरिया में था, सुधामय के घर पर। भीगा नहीं।’
वह आगे कुछ कहने जा ही रही थी कि बेटा बोल पड़ा, ‘तो तुमने क्या सोच लिया था कि कहीं बिजली गिर गई मुझ पर? मर तो नहीं गया? मैं कोई बच्चा हूं? तुम खामख्वाह चिंता करती रहती हो।’
सुजाता भारी गले से कहती है, ‘चिंता न करूं तो और क्या करूं? बच्चे नहीं हो, जानती हूं, पर बचपना तो है तुममें। यह जो भीगी हवा लगा आए, अब सारी रात खांसोगे। कह रहे हो भीगे नहीं परंतु तुम्हारे सारे बाल तो गीले हैं। लाओ, सुखा देती हूं।’
सुजाता बेटे के सिर पर हाथ रखना चाहती थी परंतु सुमंत ने उसे यह कहते हुए परे धकेल दिया, ‘हद हो गई।’ स्वयं ही तौलिये से बाल सुखाते हुए कपड़े बदलकर वह बिस्तर पर लेट गया। सुजाता स्तब्ध देखती रह गई।
श्रीमंत उसके कमरे के दरवाजे पर आकर हंसते हुए बोले, ‘क्यों भाई, मां पर क्रोधित होकर बिना खाए लेट गए? इतना क्रोध भी ठीक नहीं।’
सुमंत ने करवट बदलते हुए कहा, ‘सुधामय की मां ने आने नहीं दिया। जबरन खिचड़ी, तले बैगन और अंडे खिला दिए।’
‘वाह, तुम तो खूब मजे में रहे।’
‘सुन लिया न? सुमंत अपने मित्र के घर से लजीज पकवान खाकर आया है। चलो, अब हम भी रोटी-सब्जी खा लें। बहुत रात हो चुकी है।’
घर की बिजली आ चुकी थी। दालान की दोनों बत्तियां जल रही थीं। खाने की मेज के सामने दीवार पर श्रीमंत की मां की एक बड़ी-सी तस्वीर टंगी हुई है। उस पर प्रकाश पसर रहा था। भोजन के लिए बैठते समय श्रीमंत ने यथानियम पहले उस तस्वीर की ओर नीरव प्रणाम की भंगिमा में निगाहें डालीं और फिर भोजन करने लगे। ठीक उसी समय सुजाता का अंतरमन बुरी तरह रो उठा और दो बूंद आंसू आंखों में तैरने लगे।
उस अतिसाधारण अशिक्षितप्राय गंवार महिला के प्रति मन में भीषण ईर्ष्या का अनुभव हुआ उसे।

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मूल बांग्ला से अनुवाद ः रतन चंद ‘रत्नेश’

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