राजधर्म से तप
सप्तद्वीप नवखंड पर राज करने वाले राजराजेश्वर एक दिन अपने किशोर पुत्र को सत्ता सौंपकर वन चले गए। वे घोर तपस्या में लीन हो गए। वे एक समय फलाहार करते थे, लेकिन उन्हें आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हुई। उन्हें समाचार मिलते रहते थे कि सेवकगण प्रजा का उत्पीड़न करते हैं। एक दिन राजराजेश्वर को खाने के लिए फल नहीं मिला। जब वे एक खलिहान के पास से गुजर रहे थे, तो खेत में एक किसान की दृष्टि उन पर पड़ी। किसान बोला, ‘किस वस्तु की तलाश में हो?’ ‘भूख से व्याकुल हूं।’ किसान ने कहा, ‘मेरी झोपड़ी में चूल्हा है। खिचड़ी पकाओ। दोनों खाकर भूख मिटाएंगे।’ राजराजेश्वर ने खिचड़ी पकाई और दोनों ने भरपेट भोजन किया। फिर वृक्ष की छाया में लेट गए। सपने में उन्होंने देखा कि एक विराट पुरुष उनसे कह रहा है, ‘राजन, मैं कर्म हूं। इस सृष्टि का परम तत्व। तुम प्रजा का हित साधन करते हुए जो उच्च स्थिति प्राप्त कर सकते थे, वह वन में तपस्या से नहीं कर सके। अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करना ही सबसे बड़ा तप है।’ राजराजेश्वर का विवेक जाग उठा। वे वापस लौट आए और प्रजा के हित साधन में लग गए।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी