रामकथा के माध्यम से दिखायी आदर्श जीवन की राह
योगेश कुमार गोयल
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त और महान ग्रंथ ‘श्रीरामचरितमानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की जयंती विक्रमी संवत् के अनुसार प्रतिवर्ष श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। इस वर्ष 23 अगस्त को तुलसीदास जी की 526वीं जयंती मनाई जा रही है।
उ.प्र. के बांदा जिले के राजापुर नामक गांव में विक्रमी संवत् 1554 में पिता आत्माराम दुबे तथा मां हुलसी के यहां जन्मे तुलसीदास के बारे में कौन जानता था कि बड़े होकर वे साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र बन जाएंगे। उनके बचपन का नाम रामबोला था तथा कहा जाता है कि जन्म के समय वह रोये नहीं थे और उनके मुख में पूरे 32 दांत थे। मां की मृत्यु हो जाने पर पिता ने उन्हें अशुभ मानकर बचपन में ही त्याग दिया था, जिसके बाद दासी ने उनका पालन-पोषण किया लेकिन जब दासी ने भी उनका साथ छोड़ दिया तो उनका जीवन बेहद कष्टमय हो गया था। तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की अत्यंत विदुषी पुत्री रत्नावली से हुआ था। तुलसीदास रत्नावली पर अत्यंत मुग्ध थे । एक दिन रत्नावली मायके गई हुई थी रात का समय था, मूसलाधार बारिश हो रही थी। ऐसे मौसम में भी तुलसीदास उफनती नदी को पार कर पत्नी से मिलने देर रात उसके मायके जा पहुंचे। रत्नावली तुलसीदास के इस कृत्य पर बहुत लज्जित हुई और तुलसीदास को कहा :-
हाड़ मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।
अर्थात् जितना प्रेम मेरे इस हाड़-मांस के शरीर से कर रहे हो, यदि उतना ही प्रेम प्रभु श्रीराम से किया होता तो भवसागर पार हो गए होते। पत्नी द्वारा लज्जित अवस्था में मारे गए ताने ने तुलसीदास के जीवन की दिशा ही बदल डाली। उसके बाद उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे भगवान राम की भक्ति में रम गए।
उसी दौरान एक दिन स्वामी नरहरिदास उनके गांव आए, जिन्होंने तुलसीदास को दीक्षा देते हुए आगे के जीवन की राह दिखाई। उसके बाद तुलसीदास ने रामकथा में ही सुखद समाज की कल्पना करते हुए इसे आदर्श जीवन का मार्ग दिखाने का माध्यम बना लिया। गुरु नरहरिदास से शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद ही उन्हें रामचरितमानस लिखने की प्रेरणा मिली। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित इसी ‘रामचरितमानस’ को आज भी देशभर में एक महान ग्रंथ के रूप में बड़े ही आदर और सम्मान से साथ देखा जाता है। तुलसीदास जी ने वैसे अपने जीवनकाल में कवितावली, दोहावली, हनुमान बाहुक, पार्वती मंगल, रामलला नहछू, विनयपत्रिका, कवित्त रामायण, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी इत्यादि कुल 12 पुस्तकों की रचना की किन्तु उन्हें सर्वाधिक ख्याति रामचरितमानस के जरिये ही मिली। हालांकि, जब उन्होंने रामचरितमानस की रचना की थी, उस जमाने में संस्कृत भाषा का प्रभाव बहुत ज्यादा था, इसलिए आंचलिक भाषा में होने के कारण शुरुआत में इसे मान्यता नहीं मिली थी लेकिन सरल भाषा में होने के कारण कुछ ही समय बाद यह ग्रंथ जन-जन में बहुत लोकप्रिय हुआ।
महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित ‘रामायण’ को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना सरल अवधी भाषा में की थी। अवधी खासकर उत्तर भारत में जनसाधारण की भाषा है, इसीलिए सरल अवधी भाषा में होने के कारण रामचरितमानस अत्यधिक प्रसिद्ध हो गई। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास को जन-जन का महाकवि और कविराज माना जाता है। तुलसीदास द्वारा रचित अनेक चौपाइयां सूक्तियां बन गई हैं।
तुलसीदास जी का सम्पूर्ण जीवन राममय रहा और अपने महाकाव्य रामचरितमानस के जरिये उन्होंने भगवान श्रीराम की मर्यादा, करुणा, दया, शौर्य, साहस और त्याग जैसे सद्गुणों की व्याख्या करते हुए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम का स्वरूप दिया। रामचरितमानस के जरिये उन्होंने समूची मानव जाति को श्रीराम के आदर्शों से जोड़ते हुए श्रीराम को जन-जन के राम बना दिया था, इसलिए भी तुलसीदास को जन-जन के कवि कहा जाता है। रामचरितमानस के जरिये मनुष्य के संस्कार की कथा लिखकर उन्होंने इस रामकाव्य को भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व बना दिया। तुलसीदास के अनुसार तुलसी के राम सब में रमते हैं और वे नैतिकता, मानवता, कर्म, त्याग द्वारा लोकमंगल की स्थापना करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने रामचरित मानस को जरिया बनाकर समस्त भारतीय समाज को भगवान श्रीराम के रूप में ऐसा दर्पण दिया है, जिसके सामने हम बड़ी आसानी से अपने गुण-अवगुणों का मूल्यांकन करते हुए अपनी मर्यादा, करुणा, दया, शौर्य, साहस और त्याग का आकलन कर श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं।