बढ़ते बच्चों का हाथ थामें अभिभावक
डॉ. मोनिका शर्मा
किशोरावस्था को मौज-मस्ती और मन का करने की उम्र मान लिया जाता है। टीनएज को अपने आप में खोये रहने वाली उम्र का पड़ाव समझा जाता है। न तो छोटा बच्चा समझकर दी जाने वाली सपोर्ट मिलती है और न ही समझदार होने के आयुवर्ग में आने का स्वागत। ऐसे में मासूमियत भरे बचपने से समझ भरी उम्र की ओर बढ़ता किशोर-किशोरियों का दिलो-दिमाग कई उलझनों से जूझता है। अकेलापन और अवसाद तक घेरने लगता है। कई विषयों पर अपनों से कुछ कहना मुश्किल होता है तो कई बार घर के बड़ों के कहे को समझना कठिन लगता है। यह स्थिति किशोर बच्चों को एंग्जाइटी का शिकार बना देती है। भटकाव और भय उनके मन में डेरा जमा लेते हैं। जरूरी है कि अभिभावक उनकी मनःस्थिति समझें। यह उम्र बड़े होते बच्चों का हाथ और मजबूती से थाम लेने की होती है।
मार्गदर्शन देते रहें
‘टीनएज बच्चे किसी की सुनते ही नहीं या जरा बड़े क्या हुए खुद में ही गुम रहने लगे हैं’ जैसी बातें दोहराते रहने के बजाय बच्चों को मार्गदर्शन देने की सोचिए। उनके बदलते मन और जीवन की समझने के प्रयास अभिभावकों को भी करने होंगे। माता-पिता की ओर से मिली सलाह या समझाने के लिए बच्चे कभी बड़े नहीं होते। इस आयुवर्ग में भी बहुत सी बातों से उलझता उनका मन अभिभावकों की ओर ही देखता है। हालांकि प्रत्यक्ष रूप से उनकी यह निर्भरता कम दिखती है। चाइल्ड माइंड इंस्टीट्यूट के मुताबिक एंग्जाइटी, बचपन और किशोरावस्था में सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य विकार है। करीब 31.9 प्रतिशत किशोर 18 साल की उम्र तक किसी न किसी तरह की फिक्र से जूझते हैं। बदलावों की इस उम्र में घबराहट भी घेरती है और भविष्य की चिंता भी डराती है। कभी दोस्तों की बातों से डगमग मन और कभी परीक्षा की तैयारियों की उलझन। पीयर प्रेशर और पारिवारिक उम्मीदों का यह मोड़ टीनेजर्स को चिंता के घेरे में ला देता है। बहुत जरूरी है कि किशोरावस्था में भी पैरेंट्स बच्चों को मार्गदर्शन देते रहें।
बदलाव को समझें
इस आयुवर्ग में उनके बदलते व्यक्तित्व के लक्षणों पर गौर करना जरूरी है। बुरी आदतों की दस्तक हो या बुरी संगत के बहकावे- किशोर बच्चों के जीवन को जोखिम में डाल देते हैं। एक तरफ पैरेंट्स को लगता है कि बच्चे सब समझने और संभालने लायक हो गए हैं तो दूसरी तरफ बच्चे दुनियावी परिवेश को समझने में नई परेशानियों से घिरते जाते हैं। टीनेज में शारीरिक-मानसिक बदलाव भी भटकाव लाने वाले होते हैं। परिवर्तन की इस दिशा को समझने के लिए अभिभावकों द्वारा भावनात्मक और सकारात्मक मोर्चे पर प्रयास किए जाने जरूरी है। बात चाहे सधे ढंग से सवाल करने की हो या जिंदगी के लिए जरूरी नियम-अनुशासन सिखाने की- पहले उनके बदले मन को समझना होगा। हार्मोनल से बदलावों से आने वाले चिड़चिड़ेपन, बेचैनी, गुस्से और तनाव को उनकी उद्दंडता समझने के बजाय हर अभिभावक उम्र एक इस पड़ाव पर बच्चे को इमोशनल सपोर्ट देने की राह चुने।
सार्थक संवाद आवश्यक
किशोरावस्था शब्द लैटिन शब्द ‘एडोलेसयर’ से बना है। जिसका अर्थ है ‘परिपक्व होने के लिए बढ़ना’। समझदारी के पड़ाव की ओर बढ़ते ‘12 से 19 साल’ के बच्चे किशोर माने जाते हैं। उम्र के इस दौर में सबसे ज्यादा जरूरत बड़ों के साथ सार्थक संवाद की होती है। बड़ों को समझना होगा कि बच्चों के साथ सहज बातचीत होने का अर्थ उनकी भावनाओं-विचारों का आदर करना है। नई पीढ़ी के व्यवहार को समझने की कोशिश करने जैसा है। बच्चे, अभिभावकों और परिजनों के ऐसे सार्थक भाव-चाव को गहराई से समझते हैं। जिसके चलते गलत समझे जाने की फिक्र से दूर रहते हैं। अपनी उलझनें कह देने का भरोसा पाते हैं। बातचीत के लिए सहज परिवेश और खुलापन न मिलने से किशोरों का मनःस्थिति भटकाव के जाल में उलझ जाती है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के मुताबिक आज 44 फीसदी स्कूली बच्चे तनाव और अवसाद का शिकार हैं। यथार्थवादी जीवन से दूर वर्चुअल दुनिया में समय बिताते हुए नई तरह की मानसिक परेशानियों में फंस रहे हैं। ऐसे हालात में संवाद करना आवश्यक है।
सीबीएसई की पहल
बीते दिनों केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने आगामी बोर्ड परीक्षाओं को देखते हुए विद्यार्थियों-अभिभावकों के लिए निशुल्क मनोवैज्ञानिक परामर्श सुविधाएं देने की घोषणा की है। जो 10वीं और 12वीं बोर्ड के छात्र-छात्राओं के लिए बोर्ड के टोल फ्री नंबर पर हैं। परीक्षा की स्ट्रैस फ्री तैयारी, समय प्रबंधन, अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न, सीबीएसई कार्यालयों के महत्वपूर्ण कॉन्टैक्ट जैसे विषयों पर बातचीत की जा सकती है। बच्चों और पैरेंट्स के लिए यह समय सहज रहने की अतिरिक्त कोशिशें करने का होता है। जरूरी है कि जीवन की उलझनें हों या परीक्षा की तैयारी का पड़ाव, अभिभावक संयत होकर टीनेज बच्चों का हाथ थामे रहें।