भूख की कसक
हाल ही में जारी किये ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2023 के आंकड़े हमारे विकास और प्रगति के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले हैं। समतामूलक समाज की आकांक्षा में यदि देश अपने नागरिकों की भूख का समाधान नहीं कर पाता तो यह शोचनीय विषय है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की हालिया रिपोर्ट में भारत को दुनिया के 125 देशों में 111वें स्थान पर रखा गया है। चिंता की बात यह है कि भूख का स्तर गंभीर श्रेणी का है। रिपोर्ट बताती है कि देश में बच्चों के कुपोषण का स्तर 18.7 फीसदी है। निस्संदेह, ऐसे हालात में देश के नीति-निर्माताओं को भूख व कुपोषण के निराकरण के लिये कारगर योजनाओं को तुरंत अमल में लाने की जरूरत है। हालांकि, जीएचआई की इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इस सर्वे की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाये हैं। साथ ही इसे दुर्भावना से प्रेरित व त्रुटिपूर्ण बताकर खारिज किया है। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएफएचएस की रिपोर्ट भी एक चिंताजनक स्थिति की ओर संकेत करती है। जो बताती है कि महाराष्ट्र में नवजात मृत्युदर और अविकसित बच्चों के अनुपात में काफी वृद्धि हुई है। एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट कई चिंताजनक स्थितियों की ओर इशारा करती है। वैसे यह एक विरोधाभासी तथ्य है कि भारत की आबादी का एक बड़ा भाग न केवल खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर है बल्कि बची उपज का निर्यात भी करता है। जिसके चलते देश में कुपोषण व भूख से जुड़े ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों की तार्किकता पर सवाल उठते हैं।
भारत को आज दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है। तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर कैसे कुपोषण व भूख के आंकड़ों में भारत को पाकिस्तान, बांग्लादेश नेपाल आदि से नीचे दर्शाया जा रहा है। वैसे, नीति आयोग के राष्ट्रीय गरीबी सूचकांक आंकड़ों के अनुसार ऐसी गरीबी में रहने वाले लोगों का प्रतिशत लगभग पंद्रह था। जुलाई में आयोग की एक रिपोर्ट से पता चला था कि 74 फीसदी लोग स्वस्थ मानकों का भोजन नहीं खरीद सकते हैं। निस्संदेह, बेहतर पोषण के लिये सभी की पौष्टिक भोजन तक पहुंच, स्वच्छ पानी और स्वच्छता की स्थितियां सुनिश्चित की जानी चाहिए। ऐसे में मौजूदा दर पर, भारत द्वारा सतत विकास मानकों के अनुरूप वर्ष 2030 तक भूख खत्म करने का लक्ष्य पूरा करना मु्श्किल लगता है। सवाल यह भी उठता है कि देश की प्रगति का लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है। प्रगति के तमाम दावों के बावजूद भूख के ये आंकड़े क्यों परेशान कर रहे हैं। यह भी कि छलांग लगाते शेयर बाजार का कोई रिश्ता हमारी गरीबी दूर करने से है? देश में बढ़ती आर्थिक असमानता कालांतर कानून व्यवस्था के लिये चुनौती बन सकती है। नीति-नियंताओं को इस बात पर भी विचार करना होगा कि देश में आर्थिक असमानता निरंतर क्यों बढ़ रही है। यह एक गंभीर चुनौती है और समस्या का कारगर समाधान मांगती है।