मुस्लिम देशों में अलग-थलग पड़ता पाक
पुष्परंजन
चाड के राजनयिक हिसेन ब्राहिम ताहा, 57 देशों वाले इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के 12वें महासचिव हैं। 17 नवम्बर, 2021 से वो इस पद को सम्हाल रहे हैं। ताहा, तुर्किये के राष्ट्रपति रिज़प तैय्यप एर्दोआन के ‘यस मैन’ माने जाते हैं। ताहा की आत्मा, तुर्की और एर्दोआन में बसी रहती है। वर्ष 1969 में अपनी स्थापना के बाद से तुर्की, इस्लामिक सहयोग संगठन में एक प्रमुख खिलाड़ी की भूमिका में रहा है। ओआईसी के कई सारे सदस्य मानते हैं, कि तुर्की इस मंच का दुरुपयोग कर रहा है। न्यूयार्क से जारी अपने बयान में, ओआईसी ने दोनों पक्षों के बीच मतभेदों को ‘अंतर्राष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार शांतिपूर्ण तरीकों से’ हल करने का भी आह्वान किया। लेकिन, भारत ने इसे खारिज करते हुए कहा, कि यह दो देशों के बीच का मामला है, इसमें आपकी नसीहत की ज़रूरत नहीं।
पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रखकर एर्दोआन जो दाव चल रहे हैं, उससे पूरी दुनिया वाकिफ है। विगत 56 वर्षों से शह-मात का यह खेल चल रहा है। वर्ष 1969 में मोरक्को के किंग हसन द्वितीय ने रबात में 1969 के शिखर सम्मेलन के लिए भारत सरकार को आमंत्रित किया। लेकिन, पाकिस्तान के तत्कालीन शासक जनरल याह्या खान द्वारा, बैठक से बाहर निकलने की धमकी दिए जाने के बाद, शाह हसन द्वितीय ने भारतीय प्रतिनिधियों से बैठक में शामिल न होने का अनुरोध किया।
पाकिस्तान, तेहरान में ओआईसी 1994 सम्मेलन के दौरान, सदस्य देशों को ‘कश्मीर पर ओआईसी संपर्क समूह’ बनाने के लिए राजी करने में सफल रहा। इस्लामी सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की परिषद का 46वां सत्र 1 और 2 मार्च, 2019 को अबू धाबी में आयोजित किया गया था। तब तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को संयुक्त अरब अमीरात के उनके समकक्ष शेख अब्दुल्ला बिन जायद अल नाहयान द्वारा उद्घाटन समारोह को संबोधित करने के लिए ‘विशिष्ट अतिथि’ के रूप में आमंत्रित किया गया था। तब पाकिस्तान को शदीद मिर्ची लगी।
पाकिस्तान ने भारत द्वारा अपने हवाई क्षेत्र के उल्लंघन का हवाला देते हुए उसे शिखर सम्मेलन से निष्कासित करने की मांग की। ओआईसी ने पाकिस्तान के अनुरोध पर कश्मीर संपर्क समूह की आपातकालीन बैठक बुलाई, यह बैठक 26 फरवरी, 2019 को हुई। हालांकि, ओआईसी ने भारत द्वारा पाकिस्तानी हवाई क्षेत्र के उल्लंघन की निंदा की, लेकिन, यूएई ने भारत को निमंत्रण वापस करने से इनकार कर दिया। सुषमा स्वराज उस मंच पर गयी, और अपने ओजपूर्ण भाषण से पाकिस्तान को एक्सपोज़ किया। सभी सदस्य इस बात पर सहमत हुए, कि आतंकवाद को बढ़ाया जाना दक्षिण एशिया के लिए खतरनाक है। ओआईसी के मंच पर यह पाकिस्तान की पहली हार थी।
इमरान ख़ान के समय सऊदी अरब से भी ठन गई, जो ओआईसी का दबंग देश है। जेद्दा में ओआईसी का मुख्यालय सऊदी खर्चे पर ही चल रहा है। अन्य कई पूर्वाग्रहों के अलावा पाकिस्तान, सऊदी से इस बात पर भी खार खाये था, कि कश्मीर मुद्दे पर वो खुलकर उसका समर्थन नहीं कर रहा। शाह महमूद कुरैशी सऊदी अरब से तपे हुए थे। उन्होंने आरोप लगाया कि क्वालालम्पुर सम्मेलन में जाने से हमें रियाद ने रोका था। फाइनेंशियल टाइम्स अखबार के अनुसार, कुरैशी की टिप्पणियों से सऊदी अरब के अधिकारी भड़क गए, जो ओआईसी के मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उसने 3.2 बिलियन डॉलर की तेल ऋण सुविधा को रोक दिया, और पाकिस्तान से 3 बिलियन डॉलर के ऋण का कुछ हिस्सा चुकाने की मांग की। सिर्फ इतने भर से पाकिस्तान की हवा निकल गई। उन दिनों इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। शाह महमूद कुरैशी ने एक ब्रॉडकास्टर के ज़रिये बयान दिया, ‘मैं एक बार फिर सम्मानपूर्वक ओआईसी से कह रहा हूं कि विदेश मंत्रियों की परिषद की बैठक हमारी अपेक्षा है कि कश्मीर पर बैठक बुलाएँ। हमारी अपनी संवेदनशीलताएं हैं। खाड़ी देशों को यह समझना चाहिए।’
वर्ष 1994 में कश्मीर पर जो ओआईसी संपर्क समूह बनाया गया था, उसमें सऊदी अरब, तुर्की, पाकिस्तान, अजरबैजान और नाइजर शामिल रहे हैं। बाद में सऊदी अरब, नाइज़र और अजरबैजान इस मुद्दे पर मौन रह गए। संपर्क समूह, ओआईसी सदस्यों के बीच बढ़ते सहयोग, कश्मीरी लोगों का तथाकथित स्वशासन और स्वायत्तता को समर्थन करने पर जोर देता था। पाकिस्तानी प्रशासन की हमेशा से यह हठधर्मिता रही है, कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र के रेज़ोल्यूशन के अनुसार कश्मीर का भविष्य तय किया जाना चाहिए। दरअसल, 1964, 1972, 1999 और 14 से 16 जुलाई, 2001 तक आहूत आगरा शिखर सम्मेलन में भी कश्मीर समस्या का समाधान पकिस्तान ने होने नहीं दिया।
वाशिंगटन स्थित वुडरो विल्सन सेंटर फॉर स्कॉलर्स के दक्षिण एशिया विशेषज्ञ माइकल कुगेलमैन एक ईमेल के ज़रिये रिएक्ट करते हैं, ‘पाकिस्तान के पास वास्तव में कश्मीर पर कोई योजना नहीं है। यह पिछले कई वर्षों से कूटनीतिक आक्रमण कर रहा है, लेकिन ऐसे देश के लिए बिल्कुल नई बात नहीं है। पाकिस्तान लंबे समय से वैश्विक मंचों पर कश्मीर मुद्दे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। इससे एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है, यदि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक अभियान सफल नहीं होता है, तो इसकी दूसरी योजना क्या है?’
विशेषज्ञों का यह भी कहना है, कि कश्मीर पर पाकिस्तान की विदेश नीति में स्पष्टता का अभाव है, जो शासक आता है, कश्मीर उसकी कुर्सी मज़बूत रखने का बाइस बन जाता है। इस्लामाबाद के कायदे-आज़म विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सहायक प्रोफेसर, ‘पाकिस्तान फैक्टर एंड द कम्पिटिन्ग पर्सपेक्टिव इन इंडिया’ के लेखक राजा कैसर अहमद कहते हैं, ‘स्थिति में आक्रामक कूटनीति की आवश्यकता है। चीन, मलेशिया और तुर्की के अलावा, कोई भी अन्य देश कश्मीर पर इस्लामाबाद का समर्थन नहीं करता है।’ अर्थात, इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के 57 में से केवल दो देश कश्मीर के इश्यू पर पाकिस्तान के साथ खड़े हैं। यह तो बड़ी शर्मनाक स्थिति है।
ओआईसी के मंच पर कश्मीर का रोना रोकर पाकिस्तान, वित्तीय सहायता हथियाता रहा है, यह ढंकी-छिपी बात नहीं रह गई। जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर वली नस्र ने कहा, कि रियाद द्वारा नई दिल्ली की कश्मीर नीति पर भारत के खिलाफ कदम उठाने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है। नस्र ने कहा, ‘सऊदी अरब भारत को एक महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार के रूप में देखता है। तो क्या पाकिस्तान अब कश्मीर पर नए सहयोगियों की तलाश में है? इस समय जो संघर्ष चल रहा है, उसमें पाकिस्तान जिस तरह से अलग-थलग पड़ता जा रहा है, वह आने वाले दिनों में उसके लिए कुछ दूसरी तरह की मुश्किलें खड़ी करेगा, जिसकी शुरुआत उसकी घरेलू राजनीति से ही होगी!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।