आर्थिक बदहाली में चुनाव की ओर पाक
पिछले दिनों विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट में जिस तरह अनाड़ी कहे जाने वाले अफगान खिलाड़ियों के हाथों पाकिस्तान टीम की शर्मनाक हुई, उससे पाकिस्तानी अवाम बहुत मायूस हुई। कभी क्रिकेट जगत को दिए अपने सबसे काबिल खिलाड़ियों के गौरवमयी इतिहास की विरासत पर नाज़ करना और इसके बने रहने की आस करना स्वाभाविक भी है। लेकिन हालिया हार ने देश में मुश्किल आर्थिक हालातों से पहले से व्याप्त मायूसी में और इजाफा कर दिया। लगातार बढ़ रही मुद्रास्फीति (फिलहाल 29.5 फीसदी) के बीच पाकिस्तान की आर्थिक वृद्धि असामान्य रूप से महज 0.5 प्रतिशत दर्ज हुई है। मौजूदा ब्याज दर (22 प्रतिशत) होने से देश में व्यापारिक गतिविधियां बर्बादी की कगार पर हैं। चंद हफ्ते पहले, पाकिस्तान केंद्रीय बैंक ने बताया कि विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 4.19 बिलियन डॉलर रह गया है, जिससे केवल एक महीने का आयात संभव है, वह भी जो, बहुत-सी बंदिशों के बाद करना जरूरी है। यह स्थिति न केवल अर्थशास्त्रियों के लिए बल्कि आम लोगों के लिए एक दुःस्वप्न है, हालिया भयंकर बारिश और अचानक आई अभूतपूर्व बाढ़ से देशभर मे 3.3 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। सैलाब में लगभग 10000 लोगों की मौत और तकरीबन 10 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ बताया गया है।
आर्थिक दुष्चक्र के अलावा ऐसी राजनीतिक घटनाएं हुई हैं, जिसके कारण इमरान खान सरकार को जाना पड़ा। उनकी जगह शाहबाज़ शरीफ ने ली, जो पंजाब के सफल मुख्यमंत्री रह चुके हैं। हालांकि केंद्र में आकर उन्हें खस्ताहाल आर्थिकी और देशभर में व्याप्त ध्रुवीकरण से जूझना पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा रखी गई कड़ी शर्तों के सामने झुकने और अंततः पूरा करने से पहले, पाकिस्तान को समझौते के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन इस सारी सहायता के बावजूद, पाकिस्तान अभी भी विदेशी खैरात पर गुजर करने वाला एक मुल्क है। अपनी तंगदस्ती से वक्ती राहत पाने को वह समय-समय पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और पड़ोसी अरब मित्र देशों, खासकर सऊदी अरब और यूएई से, मिली आर्थिक सहायता पर निर्भर है।
इसी बीच जनरल असीम मुनीर, जो पूर्व सेनाध्यक्ष बाजवा के खासमखास थे, सेना प्रमुख बन गए। जनरल मुनीर के ज़हन में अवश्य ही वह यादें होंगी, जब इमरान खान ने उन्हें आईएसआई प्रमुख होने से महरूम रखा था और गैर-महत्वपूर्ण ओहदे देकर इधर-उधर घुमाते रहे। इस घटनाक्रम ने एक ओर इमरान खान तो दूसरी तरफ जनरल मुनीर के नेतृत्व वाली सेना के बीच ‘सब जायज है’ वाली तनातनी की स्थिति बना दी। इमरान खान के खिलाफ अनेक मामले दर्ज किए गए हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश फैज़ ईसा का झुकाव उनको बचाने की ओर है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश ईसा की राह भी अब उतनी आसान नहीं रही, क्योंकि उनकी सेवानिवृत्ति उपरांत कनिष्ठ सहयोगियों की नज़र इस ओहदे पर है और उनके अंदर न तो इमरान खान को बचाने में फैज़ ईसा जितना चाव है और न ही वे ऐसा करके सेना की नाराज़गी मोल लेना चाहेंगे, जो आज भी मुल्क में बहुत ताकतवर और प्रभाव रखती है। इस सब के बीच, देश चुनावी लय पकड़ चुका है। जनवरी, 2024 में संसदीय चुनाव करवाने का कार्यक्रम है।
उम्मीद करें कि पाकिस्तान की चुनाव मशीनरी, कानून एवं व्यवस्था और सेना की मदद से ऐसा प्रबंध करवा पाएगी, जो आगामी राष्ट्रीय चुनाव सफलतापूर्वक करवाने को जरूरी है। वर्तमान में तिथियां अगले साल जनवरी माह में करवाए जाने की हैं। फिलहाल जनरल मुनीर के नेतृत्व वाली पाकिस्तानी सेना के लिए आगे भी विकटता बनी रहेगी, खुद सेना के अंदर जनरल मुनीर को लेकर मतभेद हैं, क्योंकि उन्हें यह ओहदा पूर्व सेनाध्यक्ष बाजवा की ‘आंख का तारा’ होने की वजह से मिला है। खुद बाजवा के करिश्माई नेता इमरान खान से तीखे मतभेद हैं। लिहाजा ऐसी संभावना कम ही है कि इमरान खान कथित स्वतंत्र और पारदर्शी संसदीय चुनाव में बहुमत ले पाएंगे।
शाहबाज़ सरकार ने इमरान खान पर अनेक मामले दर्ज दिए थे और इस काम में उनकी पीठ पर सेना का हाथ था। इसके अलावा, इमरान खान ने अपने घमंडी और शाही मिजाज़ से राजनीतिक बिरादरी में कई मित्र गंवा दिए हैं, इनमें भी सबसे अहम है सेना के शीर्ष नेतृत्व में, जो अब उनकी चुनावी हार करवाने पर आमादा है।
उधर जनरल बाजवा से निकट संबंध होने के बावजूद जनरल मुनीर, धार्मिक आधार पर बंटे और सुन्नियों के दबदबे वाले पाकिस्तान में एक शिया सेनाध्यक्ष हैं। विगत में दो शिया सेनाध्यक्ष रहे हैं, जनरल मोहम्मद मूसा (1965) और याहया खान (1971) और दोनों के वक्त पाकिस्तान को भारत से युद्ध में करारी हार झेलनी पड़ी थी। इसलिए देखना यह है कि क्या जनरल मुनीर अपने पूर्ववर्ती और संरक्षक जनरल बाजवा की यथार्थवादिता को दोहराएंगे या फिर जनरल याहया खान की 1971 वाली लीक पर चलने को तरजीह देंगे। लगता है जनरल मुनीर अपनी छवि भारत के खिलाफ कड़े बयानों वाली बनाना चाहते हैं। हाल ही में जम्मू संभाग में अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर गोलीबारी और घुसपैठ हुई है।
उम्मीद है, अपने पद पर जमने के बाद जनरल मुनीर अपने पूर्ववर्ती की राह पर चलेंगे और पाकिस्तान की आर्थिक जरूरतों और हदों के आलोक में यथार्थवादी नज़रिया रखेंगे। अगले साल भारत और पाकिस्तान में चुनावी माहौल का ज़ोर रहेगा। भारत में जिस तरह विदेशी और सुरक्षा नीतियों पर पक्ष-विपक्ष में आमतौर पर सर्वसम्मति रहती है उसके मुकाबले पाकिस्तान में हमेशा की तरह सेना की राय इन मामलों में हावी बनी हुई है, जिससे यह अंदाज़ लगाना मुश्किल हो जाता है कि नई सरकार बनने के बाद पाकिस्तान किस दिशा में जाएगा। लगता है पाकिस्तान एक बार फिर से गठबंधन सरकार बनाने की ओर अग्रसर है और नेता आगे भी सेना के प्रभाव तले बने रहेंगे। बेशक इमरान खान को चुनाव लड़ने से महरूम कर दिया गया है, लेकिन जनता पर उनका प्रभाव आज भी है, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।