मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

जीवन मूल्यों के क्षरण से उपजी टीस

06:38 AM Jan 07, 2024 IST
Advertisement

राजकिशन नैन

जीवन संघर्ष के पेचीदा प्रसंगों को संपूर्ण संयमन के साथ कविता में व्यक्त करने वाले प्रगतिशील एवं कवि-पत्रकार कृष्णप्रताप सिंह अपने कविता संग्रह ‘डरते हुए’ की कविताओं में हमारी मुलाकात उन जीवनानुभूतियों से कराते हैं, जो हमें कटघरे में खड़ा कर हमसे सवाल पूछती हैं- इतना सुंदर जीवन इतना बदरंग और बदहाल क्यों हो गया है? क्यों इतनी भाव-शून्यता पसर गई है? क्यों आम लोग निरन्तर मर रहे हैं? कविता देखिये :-
‘कि मरे जो ठंड से/ ठंड से नहीं मरे/ मरे इसलिए कि नहीं थी उनके पास/ छत सिर छिपाने को/ बदन पर कपड़े और ओढ़ना-बिछोना/ कि मरे जो लू से/ लू से नहीं मरे/ मरे इसलिए कि/ नहीं था मयस्सर/ मौका कि लू से बिना लिपटे जी सकते/ जीने की खातिर झेली उन्होंने लू/ करने को मजबूर हुए आत्मघात/ या कि बाढ़ से ही/ गंवाई जान जिन्होंने/ बाढ़ से गंवाई नहीं/ गंवाई इसलिए कि/ नहीं था उनके पास एक भी आश्रय/ सुरक्षित होता जो/ उनके जीवन के लिए!’
कवि की नज़र में तब और अब के समय में बहुत कुछ बदल गया है। आस-पास की चीजें, लोग बाग, लोगों के जीने का ढंग बिल्कुल बदल चुका है। कवि इस सांसारिक बदलाव को तो स्वीकारता है किंतु भावनात्मक एवं आत्मिक स्तर पर जो छीजन हुई है, उसे सहन नहीं कर पाता। कवि की पीड़ा इन पंक्तियों में झलकती हैं :-
‘मिलकर बनायी थी हमने/ एक दुनिया/ दुनिया जो हमारे हंसने पर हंसती थी/ रोते थे तो रोने लग जाती थी/ और कभी परायी सी/लगने लगती थी तो/ लग जाते थे हम उसे/ अपनी बनाने में/ अपनी राह लाने में/ अपनी सुनाने में/ इसलिए तो नहीं कि तुम/ उसे भी न सह पाओ/ और बना डालो निर्मम बाजार/ इतना दुश्वार/ कि नकद भी लाचार हो/ उधार भी लाचार!’
देश को शहरों तक सीमित समझने वाले और वैश्वीकरण, उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण से चिपटे सत्ताधीशों ने समाज को जातियों और सम्प्रदायों में बांटकर सामान्य एवं मध्यवर्गीय लोगों का जीवन कष्टमय बना दिया है। ग्रामीण लोगों का जीवन कैसे चलता है, उनकी क्या जरूरतें हैं यह सब देखने-जानने की किसी को फिक्र नहीं है। लोकतंत्र न होकर विघ्न तंत्र हो गया है। कविता इस बात की पुष्टि करती है :-
‘अब सोचता हूं/ कि अच्छा ही हुआ यह/ कि तुमने अपनी घृणा के सिवाय/ कभी कुछ भी नहीं दिया मुझको/ न रहम की भीख/ न ही खुशकिस्मती/और न अभिजात्यता! जाति और धर्म के/ जो फरेब दिए भी तो/ मुंह आती आंतों ने उन्हें तोड़ डाला!’
कहना न होगा कि इस संग्रह की अधिकांश कविताओं के मूल में कवि की गहरी मनुष्योचित सहानुभूति, सत्यता और समानता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
पुस्तक : डरते हुए लेखक : कृष्णप्रताप सिंह प्रकाशक : आपस प्रकाशन, अयोध्या पृष्ठ : 145 मूल्य : रु. 240.

Advertisement

Advertisement
Advertisement