अतीत के गलियारों में छिपी समृद्ध विरासत ओरछा
सुमन बाजपेयी
खूबसूरत बेतवा नदी से घिरा ओरछा मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले का एक शहर है। ओरछा का अर्थ है ‘छिपा हुआ’ और वास्तव में इसमें इतनी चीजें छिपी हैं, जिन्हें जानने के लिए इसके हर पहलू को समझना आवश्यक है। यह शहर अपने शानदार किलों, भव्य महलों और बेहतरीन वास्तुशिल्प वाले मंदिरों के माध्यम से हमारे इतिहास और संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। और शक्तिशाली बुंदेलों की समृद्धि का एक बेजोड़ उदाहरण है।
ओरछा नगरी इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म की त्रिवेणी है। इस छोटे से शहर की सांस्कृतिक धरोहरें देखते हुए अतीत के गलियारों में सहज ही मन घूमने लगता है। ओरछा के महल के किनारे से बहती बेतवा नदी और कंचनघाट पर शान से ओरछा के वैभव का बखान करती छतरियां और यहां के मंदिर—ये यहां बार-बार आने को बाध्य करते हैं।
छतरियों का आकर्षण
राम राजा की नगरी में सुबह सबसे पहले बेतवा के किनारे पहुंची तो उगते सूरज की सौम्य किरणों को देख असंख्य दीप मन में जगमगा उठे। सामने छतरियों पर किरणों की पड़ती रोशनी हर बार उन्हें एक नया रूप प्रदान कर रही थी। सूर्यास्त के समय इन पर पड़ने वाली रोशनी इन छतरियों को कैसे जादुई आवरण से ढक देती है। छतरियां, यानी उन राजाओं के स्मारक, जिन्होंने यहां शासन किया था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में बनी ये 15 छतरियां खास बुंदेलखण्ड शैली में बनी हुई हैं। बीर सिंह बुंदेला की छतरी तीन मंजिला है और उनका शासनकाल स्वर्णयुग कहलाता है। मेहराबों से छतों को सहारा देकर मध्य में गुंबद का निर्माण किया गया है। छतरियों का यह समूह पंचायतन शैली के मंदिरों जैसा लगता है। चौकोर चबूतरे के मध्य में गर्भगृह एवं उसके चारों कोणों में खाली स्थान है, ऊपर जाकर यही अष्टकोणीय हो जाते हैं।
किले के पत्थरों पर बोलती कारीगरी
ओरछा नगर और किले की कहानी तब शुरू हुई थी जब 1531 में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप ने इस किले की आधारशिला रखी थी। यह किला बेतवा नदी और उसकी उपधारा के बीच एक ऊंचे चट्टानी भाग पर बना है। बारह किलोमीटर की परिधि में बना यह किला बादाम की आकृति का है। किला दो भागों में विभक्त था जिनके बीच चौदहद्वारी मेहराबों पर निर्मित पुल आज भी यथावत् है। पहले भाग में राजमहल, जहांगीर महल, राय प्रवीण महल, दीवाने आम, ऊंटखाना आदि स्थल हैं और दूसरा भाग पुल के दक्षिण में बेतवा की उपधारा और पुल के बीच था और दोनों भागों के बीच विशाल किला मैदान था जहां आज बाजार है। दूसरे भाग में रानी महल, फूल बाग, रामराजा मंदिर और चतुर्भुज मंदिर थे।
जहांगीर महल बुंदेलों और जहांगीर की दोस्ती की निशानी है। महल के प्रवेश द्वार पर दो झुके हुए हाथी बने हुए हैं। तीन मंजिला यह महल जहांगीर के स्वागत में राजा बीरसिंह देव ने बनवाया था। इस वर्गाकार महल की चारों भुजाएं 67.5 मीटर लंबी हैं। यह मध्यकालीन विकसित वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है जिसमें मुगलों और हिंदू स्थापत्य का सुंदर मेल है।
राजमहल ओरछा के सबसे प्राचीन स्मारकों में एक है। इसका निर्माण मधुकर शाह ने 17वीं शताब्दी में करवाया था। भित्तिचित्रों को देख कोई भी दंग रह जाएगा। मेहराबों वाले दरवाजे, बाहर की ओर निकले छज्जे, झरोखे, और शीर्ष भाग में छतरियों की कतारें, इसे भव्यता प्रदान करते हैं। आजकल यहां साउंड एंड लाइट शो का आयोजन किया जाता है जिसमें ओरछा के इतिहास का वर्णन किया जाता है।
रानी महल एक ऐसा स्थान है जहां से पूरे शहर के साथ-साथ बेतवा नदी की झलक भी दिखाई देती है। अनोखे ढंग से निर्मित रानी महल एक जटिल संरचना है जिसकी स्थापत्य कला बेजोड़ है। रानी महल अपनी दीवारों पर चित्रकारी के लिए जाना जाता है। राजा मधुकर शाह की रानी का निवास होने के कारण इसे रानी कक्ष कहते हैं। रानी भगवान राम की महान भक्त थीं इसलिए महल के अंदर रामायण के कई दृश्य अनोखे चित्रों के रूप में दिखते हैं।
राय प्रवीण महल, राजा इन्द्रमणि की खूबसूरत गणिका प्रवीण राय की याद में बनवाया गया था। मुगल सम्राट अकबर ने उसकी सुंदरता पर मुग्ध हो उसे दिल्ली भिजवाने का आदेश दिया था। पर इन्द्रमणि के प्रति उसकी निष्ठा व प्रेम को देखकर अकबर ने उसे वापस ओरछा भेज दिया।
मंदिरों की नगरी
रामराजा मंदिर भारत का एकमात्र मंदिर है जहां भगवान राम को राजा के रूप में पूजा जाता है। इंडो-इस्लामिक शैली में बने इस मंदिर को नौ चौकिया भवन भी कहते हैं। यह मंदिर कभी राजा मधुकर की रानी गणेश कुंवरी का महल था। इसके प्रांगण में सावन-भादो नामक दो स्तंभ भी बने हुए हैं। चार बार रोज यहां आरती होती है और जैसा कि राम राजा के समय मंदिर के खुलने व बंद होने के समय तोपों से सलामी दी जाती थी, अब भी सशस्त्र सैनिक बंदूकों से सलामी देते हैं। एक अपूर्व शांति का आभास होगा आपको यहां आकर, कतार में खड़े होकर आराम से राम के दर्शन किए जा सकते हैं और प्रसाद के साथ मिलने वाला पान का बीड़ा खाकर मन संतुष्ट हो जाता है।
इसी से होकर रास्ता जाता चतुर्भुज मंदिर की ओर। यह मंदिर चार भुजाधारी भगवान विष्णु को समर्पित है। कोनिकल आकार में बने इस मंदिर तक पहुंचने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं और यह 15 फीट ऊंचे विशाल आयताकार पत्थर के चबूतरे पर निर्मित है। अपने समय की यह उत्कृष्ट रचना यूरोपीय कैथेड्रल से समान है। मंदिर के केंद्रीय गुंबद की छत पर खिले हुए कमलों की सुंदर शिल्पकारी देखी जा सकती है। यह जटिल बहुमंजिला मंदिर दुर्ग व राजमहल की विशेषताओं से युक्त है। इसकी ऊपर की मंजिलें किसी भूल-भुलैया की तरह हैं।
लक्ष्मीनारायण मंदिर जिसे बीरसिंह देव ने बनवाया था का वास्तुशिल्प ऐसा है कि बाहर से देखने से यह तिकोना लगता है, पर अंदर जाने पर यह चौकोर ही दिखता है। इसमें सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के चित्र बने हुए हैं। चित्रों के चटकीले रंग इतने जीवंत लगते हैं जैसे अभी बोल ही पड़ेंगे। इसके गर्भगृह में लक्ष्मी की बहुत ही छोटी मूर्ति है। विशाल परिसर व लंबे गलियारे होने के बावजूद पूजा स्थल अत्यंत साधारण व बिना किसी अलंकरण के है।