विपक्षी लामबंदी
ऐसे वक्त में जब आम चुनाव के लिये एक साल से भी कम समय बचा है, राजग का विकल्प बनाने की कोशिशें सिरे चढ़ाने की पहल शुरू हुई है। पटना में नीतीश कुमार की पहल पर जुटे एक दर्जन से अधिक विपक्षी दलों की उपस्थिति को विपक्षी एकता की दिशा में सकारात्मक कदम ही कहा जाएगा। इस बैठक में केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को हटाने के साझा लक्ष्य पर विचार-मंथन हुआ। वैसे साल 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रचंड जीत दर्ज करने वाली भाजपा को हटाना इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस की ताकत अभी के कुछ वर्षों में कम हुई है। हालांकि, हाल के वर्षों में पहली बार कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल पटना में जुटे, लेकिन मतभेद-मनभेद दूर करने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। खासकर दिल्ली सरकार की शक्तियों पर केंद्र सरकार के अध्यादेश के मुद्दे पर कांग्रेस व आम आदमी पार्टी में मतभेद बने हुए हैं। जिसे विपक्षी एकता के प्रयासों को लेकर अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। जिसका आम जनता में अच्छा संदेश तो कदापि नहीं जाएगा। इसके साथ ही मतदाताओं में विश्वास पैदा करने के लिये कई जटिल मुद्दों को अभी सुलझाने की जरूरत होगी। बहरहाल, अभी विपक्षी एकता की कोशिशें शुरू हुई हैं और विभिन्न राजनीतिक दलों को लेकर राज्यों में सामंजस्य बैठाने की जरूरत होगी। विपक्षी साझेदारी को व्यावहारिक बनाने की भी जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि देश में स्वस्थ लोकतंत्र के लिये मजबूत विपक्ष अपरिहार्य ही है। यदि देश में विपक्ष मजबूत होगा तो सत्ता पक्ष के निरंकुश व्यवहार पर अंकुश लगाने की कोशिशें सिरे चढ़ सकेंगी। कह सकते हैं कि विपक्षी एकजुटता के लिये अभी कई परीक्षाएं शेष हैं। यह भी हकीकत है कि पटना बैठक में कोई ठोस निर्णय सामने नहीं आए। लेकिन आगे संवाद की स्थिति बनी रहने की जरूरत पर बल दिया गया। अगली बैठक का शिमला में आयोजित किया जाना विपक्ष की एकता की इन्हीं कोशिशों का ही विस्तार है।
हालांकि, पटना बैठक में केंद्र सरकार के अध्यादेश के विरोध के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी व कांग्रेस पार्टी में सहमति नहीं बन सकी, लेकिन इससे एकता के प्रयासों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। हमें स्वीकारना होगा कि कुछ माह पूर्व तक एकता की ऐसी स्थिति नजर नहीं आ रही थी। साथ ही कांग्रेस की भूमिका को लेकर भी तमाम विपक्षी दल सहमत नहीं थे। तब विपक्षी एकता की बजाय तीसरा मोर्चा बनाने की बात कही जा रही थी। देर-सवेर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रयास रंग लाते नजर आ रहे हैं। यही वजह थी कि यह बैठक गैर कांग्रेस शासित विपक्षी राज्य में आयोजित की गई। अब इसी कड़ी में दूसरी बैठक कांग्रेस शासित राज्य हिमाचल में आयोजित करने का फैसला किया गया है। निस्संदेह, इस आयोजन में कांग्रेस पार्टी की बड़ी भूमिका रहने वाली है। यह आने वाला वक्त बतायेगा कि विपक्षी क्षत्रप किस सीमा तक एकता के प्रयासों में कांग्रेस की भूमिका स्वीकार करते हैं। साथ ही यह भी कि तमाम विरोधाभासों के साथ देश में सीटों के बंटवारे का कोई सर्वमान्य फार्मूला तय हो पाता है कि नहीं। जाहिर है एकता के प्रयासों के बीच समय-समय पर कई अन्य विवादित मुद्दे सामने आएंगे। भाजपा भी अपने सारे पत्ते विपक्षी एकता के मुकाबले के लिये खेलेगी। निश्चित रूप से केंद्र सरकार में होने का अतिरिक्त लाभ भाजपा को मिलेगा। विगत में भी विपक्ष का आरोप रहा है कि केंद्र सरकारी एजेंसियों का प्रयोग विपक्ष को कमजोर करने के लिये कर रहा है। यह विपक्षी एकता के सूत्रधारों पर निर्भर करेगा कि वे आने वाले समय में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से कितनी कुशलता से निबट पाएंगे। यह भी कि एकता के प्रयास आम चुनाव से पहले तक किस हद तक मूर्त रूप ले पाते हैं। बहरहाल, किसी जीवंत लोकतंत्र के भविष्य के लिये सशक्त विपक्ष का होना वक्त की मांग जरूर है।