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विकास-शोध में ज्यादा फायदा उठाने का मौका

11:36 AM Jun 17, 2023 IST
विकास शोध में ज्यादा फायदा उठाने का मौका
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प्रधानमंत्री मोदी की 21-24 जून की आगामी अमेरिका यात्रा के दौरान भारत-अमेरिका द्विपक्षीय रिश्तों में शिखर वार्ता स्तर की राजनीतिक दिलचस्पी और नीति संबंधी विमर्श होने की आस है। कार्यसूची में व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा रिवायती स्वागत समारोह और अमेरिकी संसद के संयुक्त सदनों को प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन शामिल है। इस किस्म का शिष्टाचार द्योतक है उस विशेष सम्मान का, जब अमेरिका को किसी मुल्क और उसके नेता को तरजीह देनी होती है।

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इस यात्रा का एक मुख्य पहलू रक्षा क्षेत्र में सहयोग बनाना है। अतएव यात्रा से पूर्व, मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी स्तर पर मिल-जुलकर काफी तैयारियां की गई हैं। इस सिलसिले में अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने नयी दिल्ली में 5 जून को भारतीय समकक्ष राजनाथ सिंह से मुलाकात की है। वार्ता का मुख्य ध्यान रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच औद्योगिक स्तर का सहयोग बनाने पर केंद्रित रहा। दोनों पक्ष आपसी सलाह से नये और वर्तमान तकनीक सहयोग की शिनाख्त करने एवं दोनों मुल्कों के बीच रक्षा संबंधी नव-उद्यमों के लिए सहयोग में इजाफा करने को तैयार हैं।

दोनों राष्ट्रों ने हालिया नई पहल यानी रक्षा के तमाम क्षेत्रों में द्विपक्षीय रक्षा सहयोग को विस्तारार्थ उन्नत और परिष्कृत रक्षा तकनीक सहयोग के लिए भारत-अमेरिका उन्नत गतिमान तंत्र (इंडस-एक्स) बनाने के फैसले का स्वागत किया है। साथ ही, भारतीय विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने 6 जून को वाशिंगटन पहुंचकर भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग वार्ता में भाग लिया। इसका उद्देश्य महत्वपूर्ण तकनीकी क्षेत्र सहयोग में आगे विस्तार और व्यापार संभावनाओं की पहचान करना था। इसमें सेमीकंडक्टर, अंतरिक्ष, टेलीकॉम, क्वांटम, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बायोटेक और अन्य विधाएं शामिल हैं। जाहिर है तकनीक सहयोग का यह परिदृश्य बहुत बृहद है। कार्यसूची में जो विषय ज्यादा ध्यान खींचता है, वह है, अमेरिका निर्मित जीई एफ-414 जेट इंजन। उम्मीद है इस पर सहमति बन जाएगी। इससे यह इंजन संयुक्त रूप से विकसित करने का मौका हमें मिल जाएगा। यह स्वदेशी लड़ाकू विमान बनाने में बहुत मददगार होगा, जो अब तक इस किस्म की क्षमता से महरूम है।

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अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन की हालिया दो-दिवसीय यात्रा का मकसद रहा कि मोदी की यात्रा में परिणाम पाने में जहां कहीं कमी दिखे, वह सुधारी जा सके, क्योंकि विषय-वस्तु अधिकांशतः जेट इंजन और उच्च तकनीक सहयोग पर केंद्रित रहने वाला है। तथापि, इस किस्म के रिवायती सैन्य मंचों पर सहयोग के अलावा भारत के लिए असल चुनौती अमेरिका का साझेदार बनकर तकनीकी क्षेत्र में एक बड़ी छलांग लगाना होगा जो हमारी भावी युद्ध शैली को शक्ल देगा। मोटे तौर पर, सहयोग के नए क्षेत्रों में अंतरिक्ष, जलगत, साइबर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी महत्वपूर्ण तकनीक हैं।

लेकिन क्या भारत अमेरिका के साथ प्रभावी सहयोग करने की स्थिति में है ताकि तकनीकी क्षेत्रों में प्राप्त नवीन ज्ञान के आधार पर आत्मनिर्भरता पाने में सही मायने में बड़ी छलांग बन सके? यहीं पर शब्द ‘सर्वतंत्र’ पर ध्यान केंद्रित होता है और मौजूदा हालातों के आधार पर, लगता है ढांचागत और व्यवस्थात्मक कमियों के चलते भारत के पास वह आवश्यक तंत्र नहीं है जिससे अमेरिका के साथ अर्थपूर्ण सहयोग पूरा परिणाम दे सके और आत्मनिर्भरता के प्रयासों में तेजी बन सके और यही अंतिम उद्देश्य भी है।

नई परिष्कृत तकनीकों में प्रवीणता पाने की मात्रा, हमारी ज्ञान-ग्राह्यता की थाह और अनुसंधान एवं विकास के लिए निरंतर निवेश करने पर निर्भर होगा। अनुसंधान एवं विकास और नई खोजों के क्षेत्र में अमेरिका को दुनियाभर में अव्वल माना जाता है, चीन दूसरे पायदान पर है और अगले कुछ दशकों में पहले स्थान के लिए दृढ़-संकल्प है। किसी देश की तकनीकी क्षमता का सूचकांक उसके वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान एवं इंजीनियरिंग संबंधित पत्रिकाओं में आलोचनात्मक विवेचनार्थ पेश किए खोज-पत्रों की संख्या है। वर्ष 2020 में चीन ने 6,69,000 खोज-पत्रों के साथ अमेरिका (4,56,000) को पछाड़ दिया। 1,49,000 खोज-पत्रों के साथ भारत तीसरे स्थान पर रहा। भारतीय ढांचे में अनुसंधान एवं विकास क्षेत्र में निवेश की मद में कमी सबसे बड़ी विद्रूपता है, जबकि यह अवयव नई खोज के आधार पर वास्तविक प्रारूप तैयार करने और आगे उत्पादन प्रणाली की नींव है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.7 प्रतिशत अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करता है, जो कि अमेरिका (2.8), चीन (2.1), इस्राइल (4.3) और दक्षिण कोरिया 4.6 फीसदी से कहीं कम है।

हालांकि, डीआरडीओ सरकारी धन से चालित एक मुख्य रक्षा अनुसंधान इकाई है, लेकिन यह भी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को दरपेश मुश्किलों और जरूरत से कम धन मिलने से ग्रसित है। भारत का कॉर्पोरेट सेक्टर भी अनुसंधान एवं विकास क्षेत्र के प्रति उदासीन है, फॉर्ब्स पत्रिका में भारत के इस ‘बंजर परिदृश्य’ की चौंकाने वाली तस्वीर पेश की गई है। यह लेख पांच देशों की सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों की तुलना करते हुए बताता है कि वर्ष 2021 में अमेरिकी कंपनियों ने अनुसंधान एवं विकास के लिए 152 बिलियन डॉलर, चीन (31 बिलियन) जापान (37 बिलियन), जर्मनी (53 बिलियन) और भारत में 0.9 बिलियन डॉलर लगाए। यह निवेश राशि कुल कमाए मुनाफे में, अमेरिका (37 फीसदी), चीन (29), जापान (43) जर्मनी (55) तो भारत 2 प्रतिशत का रहा। हमारी स्थिति अपनी कहानी खुद बयान करती है अर्थातzwj;् अनुसंधान एवं विकास पर सतत निवेश करना नई खोज और दीर्घकाल में व्यावसायिक लाभ पाने लिए पूर्व-शर्त है।

अतएव, भारत को अपने अनुसंधान एवं विकास तंत्र को सींचना होगा। इससे आत्मनिर्भरता पाने की दिशा में शिक्षा संबंधित ढांचागत कमियां भी दूर हो सकेंगी। आज तकनीक और ज्ञान में बदलावों की गति बहुत तेज है और विश्व के अग्रणी उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसंधान कर रहे युवा वैज्ञानिक इसके वाहक हैं। हमारे यहां शैक्षणिक योग्यता वर्गीय विचारधारा और राजनीतिक हितों की भेंट चढ़ रही है, जिससे ज्ञान की खोज का उत्साह मर रहा है। अमेरिका से उच्च-तकनीक क्षेत्रों में अर्थपूर्ण सहयोग का लाभ उठाने की काबिलियत के लिए जो तंत्र चाहिए, वह अनुसंधान एवं विकास के ढांचे के लिए रखे गए मौजूदा न्यून धन से पल्वित नहीं हो सकता। अफसोस, यही नग्न सच्चाई है।

लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ संस्थान के निदेशक हैं।

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